हाशिमपुरा नरसंहार: खाकी के दामन का दाग

By  Md Saif December 7th 2024 01:57 PM

ब्यूरो: Hashimpura Massacre: यूपी में 37 साल पहले हुए एक भयावह नरसंहार की यादें लोगों के जेहन में तब फिर से ताजा हो गईं जब शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट ने सोलह दोषी पुलिसकर्मियों को जमानत देने का फैसला किया। ये कांड था साल 1987 में घटा हाशिमपुरा नरसंहार। जिसमें यूपी प्रांतीय सशस्त्र बल यानी पीएसी के सोलह कर्मी दोषी करार दिए गए थे। इनमें से उम्रकैद की सजा काट रहे दस कर्मियों को जमानत मिल गई है।

   

 केंद्र की तत्कालीन कांग्रेस सरकार के दौर में इस नरसंहार के बीज पड़े 

फरवरी, 1986 से राजीव गांधी के नेतृत्व वाली तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने अयोध्या में बाबरी मस्जिद का ताला खोलने का निर्णय लिया था। इसके बाद से ही यूपी के पश्चिमी इलाके में माहौल बिगड़ने लगा। 14 अप्रैल 1987 को मेरठ में सांप्रदायिक दंगे भड़के। हत्या , आगजनी और लूटपाट की वारदातें अंजाम दी गईं। कई लोगों की जान चली गई बावजूद इसके हिंसा का दौर थम ही नहीं पा रहा था। एक पखवाड़े तक माहौल बिगड़ा रहा तो शहर मे कर्फ्यू भी लगाना पड़ा। तब मेरठ के एसएसपी बीकेबी नायर थे, यहां के हालात बिगड़े तो कानून व्यवस्था सुधारने के लिए अतिरिक्त एसएसपी के रूप में गिरधारी लाल शर्मा को जिम्मा सौंपा गया था। 19 मई 1987 को तत्कालीन केंद्रीय गृह राज्यमंत्री पी चिदंबरम, यूपी के तत्कालीन सीएम वीर बहादुर सिंह, सांसद मोहसिना किदवई तथा यूपी के गृह मंत्री गोपीनाथ दीक्षित मेरठ पहुंचे। शहर के हालात का जायजा लेने के बाद शांति व्यवस्था बनाए रखने के निर्देश दिए गए थे।

  

हिंसा ने थमने का नाम नहीं लिया तब पुलिस के साथ ही पीएसी और सेना को भी तैनात करना पड़ा

पुलिस प्रशासनिक मशीनरी की तमाम कोशिशों के बाद भी हिंसा थम नहीं पा रही थी। तो दंगाईयों की हरकतों को देखते हुए शहर को सेना के हवाले कर दिया गया। सीआरपीएफ की सात और पीएसी की तीस कंपनियां भेजी गईं। 19 मई को भड़की हिंसा में दस लोगों की मौत हो गई। अगले ही दिन उपद्रवियों ने गुलमर्ग सिनेमा हॉल को जला दिया, और मरने वालों की संख्या 22 हो गई, साथ ही 75 लोग बुरी तरह घायल हो गए, 20 मई, 1987 को शूट-एट-साईट के आदेश देने पड़े।  इस दौरान पीएसी की दो राइफलें लूट ली गईं और एक मेजर के रिश्तेदार की हत्या कर दी गई। इसके साथ ही बलवाइयों की धरपकड़ के लिए जिले के पुलिस बल के साथ पीएसी और सेना के जवानों ने सर्च अभियान चलाया। हाशिमपुरा इलाके अलावा अलावा शाहपीर गेट, गोला कुआं, इम्लियान सहित दूसरे मोहल्लों में सघन तलाशी ली गई। इस दौरान भारी मात्रा में हथियार और विस्फोटक सामग्री बरामद हुए। इसी दौरान 22 मई की रात हाशिमपुरा कांड घट गया।

 

हाशिमपुरा मोहल्ले से पकड़े गए लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया था 

हापुड़ रोड पर गुलमर्ग सिनेमा के सामने हाशिमपुरा मोहल्ले में 22 मई 1987 को पुलिस, पीएसी और सेना की टीमें संयुक्त रुप से सर्च आपरेशन चला रही थीं। सेना ने सर्च के दौरान अवैध सामग्री रखने के आरोप में 644 लोगों को पकड़ा। इनमें से हाशिमपुरा के 150 लोग शामिल थे। गिरफ्तार किए गए लोग ट्रको में भरकर जेल भेजे जा रहे थे। इसी दौरान प्लाटून कंमाडर सुरिंदर पाल सिंह के नेतृत्व में पीएसी के 19 जवानों ने हाशिमपुरा मोहल्ले के पकड़े गए लोगों को जमा किया। इनमें से कई किशोरों-युवकों और बुजर्गों को ट्रको में बिठाकर पुलिस लाइन ले जाया गया। इनमें से 41 बटालियन की सी कंपनी के एक पीले ट्रक में पचास लोगों को अलग ले जाया गया, उन्हें दिन ढलते ही पीएसी के जवान दिल्ली रोड स्थित मुरादनगर गंग नहर की तरफ ले गए। वहां कुछ को गोली मारकर एक एक करके गंग नहर में फेंक दिया गया। इस बीच सड़क से जा रहे वाहनों की हेडलाइट देखकर पीएसी की टीम जिंदा बचे हुए लोगों को ट्रक में भरकर गाजियाबाद की हिंडन नदी पर ले गए। इन्हें भी गोलियां मारकर हिंडन नदी में फेंक दिया गया। लेकिन इनमें से जुल्फिकार, बाबूदीन, मुजीबुर्रहमान, मोहम्मद उस्मान और नईम गोली लगने के बावजूद बच गए थे। इन लोगों ने मरने का नाटक किया और तैर कर दूर निकल गए। इनमें से बाबूदीन ने गाजियाबाद के लिंक रोड थाने पहुंचकर रिपोर्ट दर्ज कराई। जिसके बाद हाशिमपुरा कांड देश-दुनिया में सुर्खियों में छा गया। इस घटना के अगले ही दिन 23 मई को मलियाना कांड भी घटित हुआ जिसमें 72 लोगों को मार डालने का आरोप पीएसी पर था।

   

घटना के चश्मदीद पीड़ितों ने बयां की थी खौफ की दिल दहलाने वाली दस्तान को 

हाशिमपुरा केस के गवाह जुल्फिकार ने अदालत को बताया था कि जिस ट्रक को मुरादनगर गंग नहर ले जाया गया उसमें वह भी सवार था। रात साढ़े नौ बजे सबसे पहले ट्रक से मोहम्मद यासीन को उतारा गया, जो आरटीओ दफ्तर में चपरासी के पद पर कार्यरत था, इसे पहले गोली मारी गई। इसके बाद दूसरों पर निशाना साधा गया। जुल्फिकार के दाहिनी बगल में गोली लगी। इसलिए वह बच गया, जबकि 42 लोग मारे गए थे। इस केस में मुकदमा दर्ज कराने वाले  बाबूदीन ने बताया था कि पीएसी के जवान जब लाशों को हिंडन नदी में फेंक कर चले गए, तो कुछ देर बाद लिंक रोड थाने के पुलिसकर्मी गोलियों की आवाज सुनकर मौका-ए-वारदात पर पहुंचे। पुलिसकर्मियों को देख कर बाबूदीन पहले तो घबराया पर जब उसे भरोसा हो गया कि ये पुलिस वाले दूसरे हैं, तब वह नदी से बाहर निकला और घटना के बारे में बताया। उन पुलिसकर्मियों ने वायरलेस से अफसरों को सूचना दी। उसे मोहननगर स्थित नरेंद्र मोहन अस्पताल ले जाकर भर्ती करा दिया था।

    

घटना का पता चलते ही देश-दुनिया में हड़कंप मच गया, तब कानूनी कार्यवाही शुरू हुई 

हाशिमपुरा और मलियाना कांड की जानकारी मीडिया के जरिए सामने आई। जिसके बाद से मानवाधिकार संगठन, अल्पसंख्यक अधिकार संस्थाएं सक्रिय हो गईं। तत्कालीन पीएम राजीव गांधी ने 30 मई को यूपी सीएम वीरबहादुर सिंह के साथ मेरठ शहर का दौरा किया। चंद्रशेखर सरीखे कद्दावर विपक्षी नेता ने इस मामले को संसद में उठाया। उन्होंने पीएम राजीव गांधी से दंगों की निष्पक्ष जांच कराने और जिले में तैनात अफसरों को तत्काल हटाने की मांग की थी। इस मामले को लेकर पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज ( पीयूसीएल ) ने जांच समिति गठित की। जिसमें पूर्व जस्टिस राजिन्दर सच्चर, इँद्रकुमार गुजराल को शामिल किया गया। गुजराल बाद में देश के प्रधानमंत्री बने। समिति ने 23 जून 1987 को रिपोर्ट तैयार की। इसी केस में एक जांच महालेखा परीक्षक ज्ञान प्रकाश के नेतृत्व में कराई गई। जिसने अपनी रिपोर्ट साल 1994 में सौंपी। साल 1988 में यूपी सरकार ने इस मामले की जांच सीबीसीआईडी को सौंपी। सीबी-सीआईडी ने अपनी रिपोर्ट में पीएसी और पुलिस विभाग के 37 कर्मचारियों के खिलाफ मुकदमा चलाने की सिफारिश की और 1 जून 1995 को सरकार ने उनमें से 19 के खिलाफ मुकदमा चलाने की मंजूरी दे दी। इसके बाद, 20 मई 1997 को, तत्कालीन सीएम मायावती ने शेष 18 अधिकारियों के खिलाफ मुकदमा चलाने की अनुमति भी दे दी।

    

पहले बरी कर दिए गए आरोपियो को दिल्ली हाईकोर्ट ने उम्रकैद की सजा सुनाई

 मई 2000 में, इस केस में आरोपी बनाए गए 19 अभियुक्तों में से 16 ने सरेंडर कर दिया। जिन्हें जमानत पर रिहा कर दिया गया। तीन आरोपियों की इस दौरान मृत्यु हो गई। साल 2002 में सुप्रीम कोर्ट ने इस केस का ट्रायल गाजियाबाद जिला अदालत के बजाए दिल्ली के तीस हजारी कोर्ट में ट्रांसफर कर दिया। अदालत ने जुलाई 2006 में इस मामले में हत्या, हत्या का प्रयास, साक्ष्यों से छेड़छाड़ व आपराधिक साजिश की धाराओं में आरोप तय किए थे। मामले में 264 गवाह थे।  21 मार्च 2015 को सभी जीवित 16 आरोपियों को पर्याप्त सुबूतों के अभाव में तीस हजारी कोर्ट ने बरी कर दिया। इस रिहाई के पीछे कोर्ट ने वजह बताई कि जीवित बचे पीड़ित किसी भी आरोपी पीएसी के जवान को नहीं पहचान सके। आरोपियों के बरी होने के बाद ये मामला गरमाया तो तत्कालीन अखिलेश यादव की सरकार ने पीड़ित परिवारों को 5-5 लाख का मुआवज़ा दिया था। हालांकि घटना के 31 साल बाद 31 अक्टूबर, 2018 को दिल्ली हाईकोर्ट ने सत्र अदालत के फैसले को पलट दिया,  हाईकोर्ट ने सभी को आईपीसी की धारा 302 (हत्या), 364 (अपहरण), 201 (सबूत मिटाने), 120-B (आपराधिक साजिश) के तहत दोषी करार दिया। सभी 16 आरोपियों को उम्रकैद की सजा सुनाई। हालांकि, दोषी साबित होने के बाद सभी ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की, जो कि लंबित है।

   

 इस केस में आरोपों से घिरी खाकी ने दोषियो को बचाने के भरसक प्रयास किए थे

हाशिमपुरा केस में शामिल कोई भी आरोपी जवान कभी निलंबित तक नहीं हुआ, बल्कि कुछ को तो बकायदा तरक्की भी मिली। इस मामले में आरटीआई लगाई गई जिससे खुलासा हुआ कि दोषी करार दिए जाने से पहले तक सभी आरोपी सेवा में रहे और उनकी वार्षिक गोपनीय रिपोर्ट (एसीआर) में इस घटना का कोई भी जिक्र नहीं था। यूपी के वरिष्ठ आईपीएस रहे विभूति नारायण राय ने इस मामले को लेकर कहा था, ''ये राज्य के पूरी तरह नाकाम साबित होने का मामला है। इसके सभी स्टेकहोल्डर्स यानी पुलिस, राजनीतिक नेतृत्व,  तंत्र पीड़ितों को न्याय दिलाने में नाकाम रहे''।

  

शीर्ष अदालत ने उम्रकैद की सजा काट रहे दस कुसूरवारों को जमानत दी

सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस अभय एस ओका और जस्टिस ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की बेंच के सामने पेश वरिष्ठ अधिवक्ता अमित आनंद तिवारी ने दलील दी कि दिल्ली हाईकोर्ट ने गलत तथ्यों के आधार पर ट्रायल कोर्ट का फैसला पलटा था। जबकि ट्रायल कोर्ट ने सभी आरोपियों को सबूतों की कमी के आधार पर बरी कर दिया था। एडवोकेट तिवारी ने तर्क दिया कि अपीलकर्ताओं को पहले अधीनस्थ अदालत द्वारा बरी किया जा चुका है तथा अधीनस्थ अदालत में सुनवाई और अपील प्रक्रिया के दौरान उनका आचरण अच्छा रहा है। हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ याचिका सुप्रीम कोर्ट में लंबित है, लेकिन सभी 2018 से जेल में हैं।

इस वजह से उन्हें जमानत दी जाए। इन दलीलों पर गौर करने के बाद शीर्ष अदालत ने जमानत दे दी है। याचिकाकर्ताओं की जमानत बांड के निष्पादन के लिए एक सप्ताह के भीतर ट्रायल कोर्ट के समक्ष पेश करने का निर्देश दिया गया है। ये दस दोषी पीएसी कर्मी हैं.......समी उल्लाह, निरंजन लाल, सुरेश चंद शर्मा, राम ध्यान, हम्बीर सिंह, कुंवर पाल सिंह, बुद्ध सिंह और मोहकम सिंह, महेश प्रसाद और जयपाल सिंह।

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