UP Lok Sabha Election 2024: कन्नौज में विधायकों की अग्निपरीक्षा, प्रत्याशियों में छिड़ी है तीखी जंग

By  Rahul Rana May 9th 2024 02:15 PM

ब्यूरो: Gyanendra Shukla, Editor, UP: यूपी का ज्ञान में आज चर्चा करेंगे कन्नौज संसदीय सीट की। इत्र नगरी नाम से मशहूर इस जिले से चुनाव लड़कर समाजवाद के पुरोधा राम मनोहर लोहिया, मुलायम सिंह यादव और दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित चुनाव जीतकर संसद तक पहुंचे। गंगा के बाएं ओर स्थित कानपुर मंडल के इस जिले में पौराणिक और ऐतिहासिक गाथाओं के अमिट निशान आज भी  मौजूद हैं। लाख बहोसी बर्ड सेंचुरी पर्यटकों के आकर्षण का केन्द्र रहता है।  कन्नौज के पुरातत्व म्यूजियम में यहां की प्राचीनतम वैभवगाथा की झलक देखी जा सकती है। यहां गंगा किनारे स्थित सिद्धेश्वर नाथ मंदिर, अन्नपूर्णा मंदिर, बाबा गौरी शंकर मंदिर,  माँ फूलमती मंदिर अति प्रसिद्ध हैं।

प्राचीन काल से महत्वपूर्ण केन्द्र रहा है कन्नौज

संस्कृत के शब्द कान्यकुब्ज से बना है कन्नौज। प्राचीन काल में इसके चारों ओर के क्षेत्र को आर्यावर्त कहा जाता था। रामायण में इसका उल्लेख है। प्राचीन काल में इसे कन्या कुज्जा या महोधि नाम से भी संबोधित किया गया। कहा जाता है कि ‘अमावासु’ नामक शख्स ने इस राज्य की स्थापना की थी। महाभारत काल में यह क्षेत्र कम्पिला दक्षिण पंचला की राजधानी थी और इसी जगह पर द्रौपदी का स्वयंवर हुआ था। चीनी तीर्थयात्री फाह्यान ने चंद्रगुप्त द्वितीय के शासनकाल के दौरान यहां का दौरा किया। दूसरी सदी ई.पू. में पतंजलि रचित महाभाष्य में भी कन्नौज का उल्लेख मिलता है। ग्रीक विद्वान टाल्मी द्वारा 140 ई. में लिखे गए ग्रंथ भूगोल में कन्नौज को कनगौर या कनोजिया बताया गया है।

हर्षवर्धन के शासनकाल में उच्चतम सोपान तक पहुंचा कन्नौज

ये क्षेत्र वैदिक संस्कृति के साथ साथ बौद्ध और जैन संप्रदाय का केन्द्र रहा। 606 ईस्वी में सत्ता संभालने के बाद हर्षवर्धन ने अपने साम्राज्य का विस्तार नेपाल तक किया।चीनी यात्री युवान व्यांग जिसे ह्वेनसांग के नाम से भी जाना जाता है, 630 ईसवी में कन्नौज पहुंचा। 8 साल तक राज्य अतिथि के तौर पर रहा। उसी दौरान हर्ष ने विद्वानों की बैठक के लिए कन्नौज सम्मेलन आयोजित किया।  हर बार कुंभ के अवसर पर हर्षवर्धन प्रयागराज में अपनी समस्त संपत्ति का दान कर देते थे। हर्ष की मृत्यु के बाद करीब 75 साल तक कन्नौज में राजनीतिक उथल-पुथल चलती रही और उसके अधीन के कई राज्यों ने अपनी स्वतंत्र सत्ता स्थापित कर ली...647 ईस्वी में हूणों के आक्रमण ने इस राज्य का विनाश कर दिया।

मध्यकालीन इतिहास के आईने में कन्नौज

यशोवर्मन काल में फिर से कन्नौज ने अपना वैभव हासिल किया। जिनके बाद गुर्जर-प्रतिहारों ने इसे समृद्धशाली बनाया। 1080 गहरवारों के शासन में इसकी प्रतिष्ठा उच्च स्तर पर जा पहुंची। मगर 1194 ई. में यहां के राजा जयचंद की मोहम्मद गोरी के हाथों पराजय के बाद इसकी समृद्धि का सूरज अस्त हो गया। बाद में ये गुलाम वंश के आधीन आ गया....यहां मुहम्मद तुगलक ने जबरदस्त तबाही की। 'आईने अकबरी'  से पता चलता है कि अकबर के शासनकाल में ये महत्वपूर्ण केन्द्र था।

इत्र कारोबार ने इस शहर को दी अनूठी पहचान

इत्र तो कन्नौज की माटी में बसा है, यहां का कण कण यहां की गलियां इत्र की खुशबू से महका करती हैं। यहां इत्र का कारोबार पांच हजार साल पुराना माना जाता है। गंगा जमुना दोआबी मिट्टी गुलाब की खेती के लिए मुफीद थी लिहाजा गुलाब के अर्क से इत्र का काम शुरू हुआ।  माना जाता है कि मुगल काल में नूरजहां ने भी इत्र निर्माण को नया आयाम दिया। कन्नौज में कांच की शीशियों में बंद इत्र की एक से बढ़कर एक वैरायटी हैं। चंदन से लेकर गुलाब, चंपा-चमेली, खस, गीली मिट्टी व बारिश की खुशबू से तरबतर इत्र हैं। पीढ़ी दर पीढ़ी ये कारोबार जारी है। इत्र कारोबार कि करीब 200 से अधिक इकाइयां हैं, बड़ी तादाद में लोग इस कारोबार से जुड़े हैं. यहां खुशबू के इस कारोबार को 2500 करोड़ से ऊपर तक ले जाने, निर्यात बढ़ाने के मकसद से इत्र पार्क का भी निर्माण हुआ है।

चुनावी इतिहास के नजरिए से कन्नौज

जिले के तौर पर इसका अस्तित्व सामने आया 18 फरवरी, 1997 को जब फर्रुखाबाद जिले से इसे अलग करते हुए नया जिला बनाया गया। शुरुआती तीन आम चुनावों में इस नाम की कोई लोकसभा सीट नहीं हुआ करती थी.....पहली बार ये संसदीय सीट 1967 में अस्तित्व में आई। तब यहां से संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी की तरफ से चुनाव लड़े राम मनोहर लोहिया ने कांग्रेस के एसएन मिश्रा को महज 472 वोटों से पराजित कर दिया था। 1971 में जीत की बाजी लगी एसएन मिश्रा के हाथ तब उन्होंने भारतीय जनसंघ के राम प्रकाश त्रिपाठी को भारी मतों से हरा दिया था। पर इमरजेंसी के बाद हुए 1977 के चुनाव में भारतीय लोकदल के टिकट से चुनाव लड़े राम प्रकाश त्रिपाठी ने बड़ी जीत दर्ज की। उन्होने कांग्रेस के बलराम यादव को पौने दो लाख वोटों से शिकस्त दी। 1980 में मध्यावधि चुनाव में जनता पार्टी (सेकुलर) से छोटे सिंह यादव जीते। 1984 में यहां कांग्रेस से शीला दीक्षित चुनाव जीतीं, बाद में वह लगातार 15 साल दिल्ली की मुख्यमंत्री बनीं। तब उन्होने लोकदल से चुनाव लड़ रहे छोटे सिंह यादव को हराया था।

नब्बे के दशक से ये क्षेत्र समाजवादी पार्टी का गढ़ बना

हालांकि 1989 में जनता दल के टिकट से चुनाव लड़कर छोटे सिंह यादव ने अपनी हार का बदला लिया और शीला दीक्षित को हरा दिया। 1991 में भी छोटे सिंह यादव ही सांसद चुने गए तब उन्होने जनता पार्टी के टिकट से चुनाव लड़कर बीजेपी के टीएन चतुर्वेदी को हराया था। 1996 मे बीजेपी का पहली बार खाता खुला उसके प्रत्याशी चंद्रभूषण सिंह उर्फ मुन्नू बाबू ने सपा के छोटे सिंह यादव को मात दे दी। पर मुन्नू बाबू को 1998 में सपा के प्रदीप कुमार यादव ने हरा दिया।

सैफई परिवार का प्रभुत्व कायम हुआ कन्नौज पर

1999 में खुद सपा संस्थापक मुलायम सिंह यादव कन्नौज से चुनाव लड़े। उन्होंने लोकतांत्रिक कांग्रेस के अरविंद प्रताप सिंह को हराया। तब मुलायम संभल से भी जीते थे लिहाजा उन्होंने संभल सीट बरकरार रखते हुए कन्नौज से इस्तीफा दे दिया। यहां हुए उपचुनाव में उनके बेटे अखिलेश यादव पहली बार जीतकर सांसद बने। 2004 में अखिलेश यादव ने बीएसपी के राजेश सिंह को तीन लाख वोटों से हरा दिया। 2009 में अखिलेश यादव ने जीत की हैट्रिक लगा दी। उन्होने बीएसपी के डॉ. महेश चंद्र वर्मा को हराया।

अखिलेश ने अपनी इस परंपरागत सीट पर डिंपल को उतारा

2012 में यूपी के सीएम की कुर्सी संभालने के बाद अखिलेश यादव विधान परिषद के सदस्य बन गए और संसद सदस्यता छोड़ दी तब हुए उपचुनाव में उनकी पत्नी डिंपल यादव निर्विरोध निर्वाचित हो गईं। क्योंकि तब कांग्रेस और बीएसपी ने कैंडिडेट ही नहीं उतारे, और बीजेपी प्रत्याशी आखिरी वक्त तक नामांकन दाखिल न कर सके। 2014 में फिर डिंपल यादव चुनाव जीतीं...उन्होने बीजेपी के सुब्रत पाठक को 19,907 वोटों से हराया।

पिछले आम चुनाव में यहां की  सियासी तस्वीर बदल गई

2019 में चुनावी बाजी पलट गई। तब बीजेपी ने चुनाव में सुब्रत पाठक को मैदान में उतारा तो उनके सामने समाजवादी पार्टी ने डिंपल यादव को टिकट दिया। चुनाव में सपा और बसपा के बीच चुनावी गठजोड़ था। सुब्रत पाठक को 563,087 वोट मिले जबकि डिंपल को 550,734 वोट मिले। दोनों ने मिलकर चुनाव में 98 फीसदी हासिल कर लिए। असर यह हुआ कि यहां पर मुकाबला बेहद कांटे का हो गया और सुब्रत पाठक ने 12,353 मतों के अंतर से चुनावी जीत हासिल कर ली।

आबादी व जातीय समीकरणों का हिसाब किताब

आबादी के ताने बाने पर गौर करे तो तकरीबन बीस लाख वोटर वाली इस सीट पर 3.5 लाख मुस्लिम, 3.60 लाख दलित, सवा तीन लाख ब्राह्मण, तीन लाख यादव,  1.75 लाख लोध, 1.5 लाख शाक्य, सवा लाख क्षत्रिय हैं तो एक लाख पाल इतने ही शाक्य वोटर हैं। सपा को यहां एमवाई यानि मुस्लिम यादव गठजोड़ का लाभ मिलता रहा।

बीते विधानसभा चुनाव मे चार सीटे बीजेपी और एक सपा को मिली

कन्नौज संसदीय सीट के तहत पांच विधानसभाएं शामिल हैं। जिनमें कन्नौज की छिबरामऊ, तिर्वा, कन्नौज सदर सुरक्षित और औरैया की बिधूना और कानपुर देहात की रसूलाबाद सुरक्षित सीट शामिल हैं। साल 2022 के विधानसभा चुनाव में इनमें से छिबरामऊ से बीजेपी की अर्चना पाण्डेय, तिर्वा से बीजेपी के कैलाश सिंह  राजपूत, कन्नौज सदर से बीजेपी के असीम अरुण, रसूलाबाद से बीजेपी की पूनम शंखवार और बिधूना से सपा की रेखा वर्मा को जीत मिली।

चुनावी बिसात पर तैनात है सियासी योद्धा

इस बार का चुनाव इसलिए बेहद दिलचस्प है क्योंकि यहां से बीजेपी के सुब्रत पाठक के मुकाबले के लिए खुद सपा मुखिया अखिलेश यादव चुनाव मैदान में हैं। पहले उन्हे अपने भतीजे और लालू प्रसाद यादव के दामाद तेजप्रताप यादव को प्रत्याशी बनाया था फिर बड़ा फैसला लेते हुए खुद चुनाव लड़ने का ऐलान कर दिया। बीएसपी की ओर से कानपुर के कारोबारी इमरान बिन जाफर ताल ठोक रहे हैं।

प्रत्याशियों में छिड़ी है तीखी जंग

गौरतलब है कि मायावती की पार्टी ने साल 2000 में भी अखिलेश के सामने अकबर अहमद डंपी को चुनाव मैदान में उतार कर मुस्लिम कार्ड चला था। वहीं सुब्रत पाठक की दोबारा जीत को लेकर योगी सरकार के समाज कल्याण मंत्री और पूर्व आईपीएस अफसर असीम अरुण की प्रतिष्ठा भी यहां पर दांव पर लगी हुई है।  इत्र नगरी में मोदी की गारंटी और सैफई व सपा परिवार के साथ ही मुलायम की विरासत की बड़ी जंग की ओर सभी की निगाहें टिकी हैं।

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