पुण्यतिथि पर विशेष : नाम के नहीं सचमुच के दिग्विजयी थे दिग्विजयनाथ
ब्यूरो : सिर्फ नाम के नहीं सचमुच के दिग्विजयी थे गोरक्षपीठाधीश्वर ब्रह्मलीन महंत दिग्विजयनाथ। उनके शिष्य और पीठ के मौजूदा पीठाधीश्वर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के गुरु ब्रह्मलीन महंत अवेद्यनाथ के मुताबिक, "वह अंतिम क्षण तक हिंदू जाति, धर्म और राष्ट्र के हित चिंतन में लगे रहे। पवित्र उद्देश्य से लक्ष्य निर्धारित करने। अपने मजबूत संकल्प और हर संभव तरीके से पूरा करने की उनमें अद्भुत क्षमता थी। साथ ही प्रतिभावान लोगों को परखने, प्रोत्साहित करने और उसी अनुसार मौका देने की विलक्षण प्रतिभा भी उनमें थी" (महंत दिग्विजय नाथ स्मृति ग्रंथ)।
उनका मजबूत इरादा और संकल्प शायद उस भूमि से मिली थी, जहां उन्होंने जन्म लिया था। मालूम हो कि उनका जन्म उदयपुर के प्रसिद्ध राणा परिवार में हुआ था। वही राणा प्रताप जिन्होंने तमाम प्रलोभनों और मुश्किलों के बावजूद भी अपने समय के सबसे ताकतवर मुगल सम्राट अकबर के सामने घुटने नहीं टेके।
यही वजह है कि उन्होंने हिंदू, हिंदुत्व और राष्ट्र की बात पूरी मुखरता से तब की जब आजादी से पहले और बाद में कांग्रेस की आंधी चल रही थी। तब खुद को धर्मनिरपेक्ष कहना फैशन और खुद को हिंदू कहना अराष्ट्रीयता का प्रतीक बन गया था। वह हिंदू और हिंदुत्व के लिए बेहद चुनौतीपूर्ण समय था। ऐसे समय में वह सड़क से लेकर सदन और संसद तक बहुसंख्यक हिन्दू समाज की आवाज बन गए। अपने समय में वह हिंदी, हिंदू और हिंदुस्थान के प्रतीक थे। स्वदेश, स्वधर्म और स्वराज उनके जीवन का मिशन था।
उस समय के तमाम दिग्गज नेताओं से वैचारिक विरोध के बावजूद उन सबसे उनके निजी रिश्ते सबसे अच्छे थे। सब उनका आदर करते थे। ब्रह्मलीन होने के बाद संसद में दी गई श्रद्धांजलियां इस बात का सबूत हैं। खासकर पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय इंदिरा गांधी और स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेई ने जो कहा था, वह काबिले गौर है।
शिक्षा और धर्म के क्षेत्र में श्री महंत का बहुत ऊंचा स्थान था:इंदिरा गांधी
इंदिरा गांधी ने कहा था," श्री महंत का शिक्षा और धर्म के क्षेत्र में बहुत ऊंचा स्थान था। उन्होंने गोरखपुर विश्वविद्यालय की स्थापना का भी महान कार्य किया। उनका नाम असहयोग आंदोलन से भी जुड़ा था। साइमन कमीशन और हैदराबाद सत्याग्रह से भी वे संबंधित रहे। वे प्रसिद्ध गोरखनाथ मंदिर के महंत थे।"
अकेले होने के बाद भी उनकी आवाज इतनी दृढ़ थी कि सुनना पड़ता था: अटलजी
अटलजी ने कहा था," श्री महन्त दिग्विजयनाथ जी महाराज हमारे साथी थे। इस संसद में कन्धे से कन्धा लगा कर हम काम करते थे और भारत के निर्माण में योगदान देते थे। वह हमारे स्वाधीनता संग्राम के सेनानियों में से थे। 1921 के असहयोग आन्दोलन में उन्होंने सक्रिय भाग लिया था। उनका क्रान्तिकारियों के साथ घनिष्ठ सम्पर्क था। ऐतिहासिक चौरीचौरा काण्ड में उन्हें गिरफ्तार किया गया था। साइमन कमीशन का बहिष्कार करने के लिए उन पर विदेशी सरकार की कोप दृष्टि पड़ी थी। बाद में साम्प्रदायिकता एवं राष्ट्रीयता के प्रश्न पर उन्होंने कांग्रेस से नाता तोड़ा। हिन्दू महासभा में शामिल हुए और अध्यक्ष बने। हालंकि संसद में उनकी आवाज अकेली थी। अपने दल के वे एकमेव प्रतिनिधि थे, लेकिन जो कुछ वे कहते, बड़ी दृढ़ता के साथ कहते थे। उनके विचारों से मतभेद हो सकता था, किन्तु उनकी देशभक्ति, प्रामाणिकता और अपने विचारों के साथ तथा अपनी रोशनी के अनुसार देश की सेवा करने की जो ऐकान्तिक भावना थी। उससे कोई मतभेद नहीं रख सकता था।
वह देश के हिंदू राष्ट्रपति भी थे
उल्लेखनीय है कि कांग्रेस से मोहभंग होने के बाद वह हिंदू महासभा से जुड़ गए।1961/1962 में वे हिंदू महासभा के हिंदू राष्ट्रपति निर्वाचित हुए। 1967 में वह महासभा से सांसद चुने जाने वाले एकमात्र संसद थे। गोरक्षपीठ की परंपरा के अनुसार वह भी बहुसंख्यक समाज में की जाति पाति, छुआछूत आदि के मुखर विरोधी थे। इन कुरीतियों को वे पाप मानते थे और अपने हित में इनको संरक्षण देने वालों को महापापी। हिंदू धर्म के सभी संप्रदायों को एक मंच पर लाने के लिए 1965 में आयोजित, विश्व हिंदू धर्म सम्मेलन की सफलता में उनका महत्वपूर्ण योगदान था। उनके ही प्रयासों से तीन पीठों के शंकराचार्य उस आयोजन में आए। उद्घाटन पूर्व राष्ट्रपति स्वर्गीय डॉक्टर राधा कृष्णन ने किया था।
सिद्धांतहीन राजनीति के थे मुखर विरोधी
महंत दिग्विजय नाथ स्मृति ग्रंथ में ब्रह्मलीन महंत अवेद्यनाथ ने अपने गुरु के बाबत लिखा है, वह अक्सर कहा करते थे, "सिद्धांत बेचे नहीं जाते। आजकल के वे नेता जो दिन में तीन चार बार दल बदलते रहते हैं उनका न कोई सिद्धांत है न नीति। वे न जनता के सेवक हैं न देश भक्त। स्वार्थों पर आधारित कुर्सी की भक्ति ही उनकी राजनीति है"। इसके लिए वह महाराणा प्रताप का जिक्र करते थे। कहते थे स्वार्थ, पद लोलुपता छोड़ अन्य लोग भी प्रताप के नक्शे कदम पर चल सकते थे। नहीं चले तो वह इतिहास में दफन हो गए और राणा प्रताप हिंदू समाज के गौरव के रूप में अमर। यही वजह रही कि 1932 में उन्होंने पिछड़े पूर्वांचल में शिक्षा का अलख जगाने के लिए जिस प्रकल्प की स्थापना की उसका नाम महाराणा प्रताप शिक्षा परिषद रखा।