बिजली तंत्र का निजीकरण: आशंकाएं व सवाल-2

By  Md Saif December 4th 2024 01:31 PM

ब्यूरो: UP News: यूपी के ऊर्जा महकमे में इन दिनों बिजली की रोशनी से कहीं ज्यादा चमकीला नजर आ रहा है विवादों का मुद्दा। पावर कारपोरेशन द्वारा पीपीपी मॉडल के तहत बिजली निगमों के निजीकरण की कवायदें शुरू की गई हैं। इसके विरोध में इंजीनियर और कर्मचारी संगठन लामबंद होने लगे हैं। विरोध कर रहे पक्ष की दलील है कि पावर कारपोरेशन घाटे की आड़ में निजीकरण को हर हाल में अंजाम देना चाहता है जबकि निजी  हाथों में किसी के भी हित सुरक्षित नहीं हैं। दूसरे प्रदेशों का उदाहरण गिनाकर दलील दी जा रही है कि निजीकरण न सिर्फ कर्मचारियों बल्कि उपभोक्ताओं के लिए पूरी तरह से अहितकर है।

    

अगर बकाया बिजली बिल वसूल ले उर्जा महकमा तो घाटे से उबर जाएगा

यूपी राज्य विद्युत उपभोक्ता परिषद के मुताबिक पावर कारपोरेशन का कुल घाटा 1.10 लाख करोड़ रुपये है। जबकि उपभोक्ताओं पर वर्ष 2023-24 तक बिजली बिल की बकाया की राशि 1.15 लाख करोड़ रुपये है। इसमें दक्षिणांचल का 24,947 करोड़ रुपये, पूर्वांचल में 40,962 करोड़ रुपये, मध्यांचल में 30,031 करोड़ रुपये, पश्चिमांचल में 16,017 करोड़ रुपये और केस्को में 3,866 करोड़ रुपये बकाया है। ऐसे में कारपोरेशन अगर प्रभावी तरीके से बकाया बिल वसूल कर ले तो 5,825 करोड़ रुपये के लाभ की स्थित में आ जाएगा। ऐसी स्थिति में उसे निजीकरण की जरूरत ही नहीं रह जाएगी। अगर इंजीनियर और कर्मचारी वसूली नहीं करवा पा रहे तो यह ठेका किसी निजी फर्म को देकर घाटा खत्म किया जा सकता है। बल्कि कंपनियां फायदे में भी आ जाएंगी।


कर्मचारी संगठन घाटे के बाबत सरकारी आंकड़ों से नहीं है मुतमईन

 उर्जा महकमे की ओर से एक लाख दस करोड़ के घाटे को लेकर जो आंकड़े दिए जा रहे हैं उनसे विद्युत कर्मचारी संयुक्त संघर्ष समिति सहमत नहीं है। इन आंकड़ों को भ्रामकर करार देते हुए संघर्ष समिति के संयोजक शैलेन्द्र दुबे कहते हैं कि घाटे के चलते सरकार द्वारा चालू वित्तीय वर्ष में पावर कारपोरेशन को 46,130 करोड़ रुपये की सहायता देने की बात बताने में यह तथ्य छिपाया जा रहा है कि इसमें 20 हजार करोड़ रुपये तो सब्सिडी के ही शामिल हैं। निजी कंपनियां बिजली उत्पादन से लेकर वितरण तक में सिर्फ भारी मुनाफा कमा रही हैं। अब नई व्यवस्था से उन्हें अपना खजाना भरने का और मौका मिल जाएगा।

 

ओडिशा मॉडल की खामी गिनाकर निजीकरण का हो रहा है विरोध 

विद्युत कर्मचारी संयुक्त संघर्ष समिति ओडिशा मॉडल का जिक्र करते हुए दलील दे रही है कि वहां छब्बीस साल पहले 1998 में निजीकरण किया गया पर ये प्रयोग फ्लॉप साबित हुआ।  वर्ष 2015 में जब ओडिशा विद्युत नियामक आयोग ने निजी कंपनी रिलायंस के सभी लाइसेंस रद किए तब ओडिशा में लाइन हानियां 47 फीसदी से कहीं ज्यादा थीं। वर्ष 2020 में टाटा पावर के आने के बाद वर्ष 2023 में सदर्न कंपनी में 31.3 फीसदी हानि थी जबकि वेस्टर्न कंपनी में 20.5 फीसदी और सेंट्रल कंपनी में 22.6 फीसदी हानि की स्थिति थी। दूसरी तरफ यूपी पावर कारपोरेशन का लाईन लॉस 19 फीसदी ही है। रिवैंप योजना के लागू होने के बाद यह 15 फीसदी से भी कम हो जाएगी।

  

कर्मचारी संगठन मानते हैं कि निजी क्षेत्र से खरीदी गई बिजली मंहगी होती है

बिजली कर्मचारी संयुक्त संघर्ष समिति के संयोजक शैलेंद्र दुबे के मुताबिक बिजली आपूर्ति की कुल लागत का 85 प्रतिशत बिजली की खरीद में खर्च होता है। सूबे में सबसे सस्ती बिजली एक रुपये प्रति यूनिट यूपी के जल विद्युत गृहों की है जबकि तापीय विद्युत गृहों की बिजली 4.28 रुपये प्रति यूनिट पड़ती है। एनटीपीसी की बिजली 4.78 रुपये प्रति यूनिट है जबकि निजी क्षेत्र की बिजली 5.59 रुपये प्रति यूनिट में खरीदी जा रही है। निजी क्षेत्र से शार्ट टर्म सोर्सेज से तो 7.53 रुपये प्रति यूनिट तक बिजली खरीदी जाती है। यूपी में निजी क्षेत्र से महंगी दरों पर बिजली खरीदने के बाद उसे घाटा उठाकर सस्ती दरों में बेचा जा रहा है। उत्तर प्रदेश में घाटे की यही मुख्य वजह है।


कर्मचारियों के हितों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ने को लेकर जताई जा रही है चिंता 

कर्मचारी संगठनों के मुताबिक साल 2010 में जब टोरेंट पावर को आगरा का फ्रेंचाइजी दी गई थी। तब आगरा में राजस्व वसूली का 2200 करोड़ रुपये बकाया था। इनके मुताबिक चौदह वर्ष बीत जाने के बावजूद टोरेंट कंपनी ने इस बकाये की धनराशि का एक रुपया भी पावर कारपोरेशन को नहीं दिया है। निजीकरण के बाद आगरा व ग्रेटर नोएडा में भी विद्युत परिषद के किसी कार्मिक को निजी कंपनी ने नहीं रखा। सबको वापस आना पड़ा था। ये उदाहरण समझने के लिए काफी हैं कि निजीकरण से कर्मचारियों के भविष्य पर किस तरह से नकारात्मक असर पड़ता है।

    

निजी क्षेत्र के हाथों में व्यवस्था जाने से उपभोक्ताओं के हित प्रभावित होने की आशंका

यूपी में नई व्यवस्था से उपभोक्ताओं के हितों पर कितना असर पड़ेगा अभी ये तय तो नहीं है लेकिन ओडिशा और मुंबई का उदाहरण बता रहा है कि निजीकरण के बाद वहां की स्थितियां उपभोक्ताओं के हितों में कम ही हैं। मुंबई में निजी क्षेत्र की टाटा पावर कंपनी की दरों पर गौर करें तो पाएंगे कि घरेलू उपभोक्ताओं से 100 यूनिट तक 5.33 रुपये प्रति यूनिट, 101 से 300 यूनिट तक 8.51 रुपये प्रति यूनिट, 301 से 500 तक 14.77 रुपये प्रति यूनिट और 500 यूनिट से अधिक पर 15.71 रुपये प्रति यूनिट वसूली की जाती है। वहीं, यूपी में मौजूदा वक्त में घरेलू बिजली की दर 6.50 रुपये प्रति यूनिट है। कयास लगने लगे हैं कि यूपी में बीस फीसदी तक बिजली की दरें महंगी हो जाएगी।


कर्मचारी संगठन कहते हैं कि दिक्कत प्रबंधन की है तो उन पर कार्रवाई हो

कर्मचारी संगठनों के मुताबिक पावर कारपोरेशन जो नया पीपीपी मॉडल लागू करना चाहता है उसमें कर्मचारी और इंजीनियर तो वही काम करेंगे जो अभी हैं बस प्रबंधन बदलेगा। जाहिर है कि दिक्कत प्रबंधन की है। साल 2000 से पहले सब कुछ इंजीनियर संभालते थे पर बाद में प्रबंधन का जिम्मा आईएएस संवर्ग के हाथों में आ गया। इसी के बाद बिजली कंपनियों का घाटा बढ़ता चला गया। ऐसा क्यों हुआ इसकी उच्चस्तरीय जांच कराई जानी चाहिए। इस मुद्दे को लेकर राज्य उपभोक्ता परिषद ने प्रधानमंत्री कार्यालय को पत्र भेजा है। जिसमें कहा गया है कि पावर कॉर्पोरेशन प्रबंधन ने दोनों निगमों में केंद्र सरकार से रिवैंप्ड डिस्ट्रीब्यूशन सेक्टर स्कीम (आरडीएसएस) में करीब 20415 करोड़ रुपया खर्च   कर दिए। अब इन दोनों निगमों को निजी हाथों में देने की तैयारी हो रही है। ऐसे में पूरे मामले की सीबीआई जांच कराई जाए, जिससे गलत तरीके से नीतियां बनाने वाले अफसरों के खिलाफ कार्रवाई हो सके।

  

निजी कंपनियां पावर सेक्टर में पांव पसारने को इसलिए हैं लालायित 

ऊर्जा क्षेत्र के विशेषज्ञों के मुताबिक निजी कंपनियां पावर सेक्टर में इसलिए पांव पसारना चाहती हैं क्योंकि यहां पहले से ही बिजली उत्पादन हो रहा है, बिजली के तार हर कहीं बिछे हुए हैं, बिजली वितरण भी जारी है। ऐसे मे निजी कंपनियों की कोई लागत तो लगनी नहीं है बस प्रबंधन की कमान संभालनी है। बिना पूंजी का ऐसा सौदा भला किस कंपनी को नहीं भाएगा।

           बहरहाल, बिजली वितरण के निजीकरण को लेकर कर्मचारी आक्रोशित नजर आ रहे हैं। यूपी विद्युत कर्मचारी संयुक्त संघर्ष समिति के पदाधिकारियों ने चेतावनी दी है कि शीघ्र ही सरकार निजीकरण के निर्णय को वापस ले। वरना लोकतांत्रिक तरीके से बड़ा आंदोलन किया जाएगा। नेशनल कोआर्डिनेशन कमेटी ऑफ इलेक्ट्रिसिटी इम्प्लाइज एंड इंजीनियर ने पूर्वांचल व दक्षिणांचल विद्युत वितरण निगम और चंडीगढ़ पावर डिपार्टमेंट को निजी हाथों में सौंपने के खिलाफ 6 दिसंबर को पूरे देश में विरोध प्रदर्शन करने का ऐलान कर दिया है। इस मुद्दे को लेकर तीव्र विरोध होने की अटकलें लगने लगी हैं।  

    

उत्तर प्रदेश में निजीकरण की पहले की कवायदें

1993:  एनपीसीएल को नोएडा में बिजली डिस्ट्रीब्यूशन का जिम्मा सौंपा गया था। तब यह केवल एक डिविजन हुआ करता था। इसका विरोध हुआ पर व्यवस्था लागू रही।


2006: यूपी में मुलायम सिंह यादव के मुख्यमंत्री रहने के दौरान लखनऊ इलेक्ट्रिक सप्लाई एडमिनिस्ट्रेशन (लेसा) के ग्रामीण क्षेत्रों में बिजली देने की जिम्मेदारी एक फ्रेंचाइजी को देने का फैसला कैबिनेट ने किया। इसे लेकर याचिका दायर हुई और फैसले पर रोक लग गई।


2010: टोरेंट कंपनी को आगरा शहर बिजली प्रबंधन की जिम्मेदारी दे दी गई। जिसके खिलाफ आंदोलन हुआ।  उपभोक्ता परिषद ने विद्युत नियामक आयोग में याचिका दायर की। आयोग ने प्रदेश सरकार के पास मामला भेज दिया। पर तत्कालीन शासन ने कोई कार्यवाही नहीं की।

 

2013:  गाजियाबाद, वाराणसी, मेरठ और कानपुर में बिजली वितरण की व्यवस्था पीपीपी माडल पर कर दी गई।

 

2014 से लागू हो रही इस व्यवस्था का व्यापक विरोध हुआ तो विद्युत नियामक आयोग ने जवाब तलब किया। पावर कारपोरेशन ने आयोग में जवाब दाखिल किया कि फिलहाल यह व्यवस्था आंतरिक अध्ययन भर है। आयोग ने ऐसे अध्ययन की रिपोर्ट तलब की जो कभी नहीं दी जा सकी।

  

2020: पूर्वांचल विद्युत वितरण निगम का निजीकरण करने के कवायद शुरु हुई। इंजीनियरों ने जमकर मुखालफत की। बाद में तत्कालीन ऊर्जा मंत्री और इंजीनियर संगठनों के बीच लिखित समझौता हुआ कि भविष्य में निजीकरण या फ्रेंचाइजी करण का फैसला बिना उनकी सहमति के नहीं होगा।

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