ब्यूरो: By Election Results 2024: यूपी की सियासत में जाति का वर्चस्व एक तल्ख सियासी हकीकत है। यहां चुनावी कामयाबी की इबारत जातीय समीकरणों की स्याही से ही लिखी जाती रही है। पर जातीय अंकगणित के नियम वक्त बीतने के साथ बदलते भी रहते हैं। चुनावी जंग में जब कोई जातीय फार्मूला बेअसर साबित होने लगता है तब उसे नए सिरे से धार देने की दरकार होती है। इसकी बानगी है सपा सुप्रीमो अखिलेश यादव का पिछड़-दलित-अल्पसंख्यक वाली ‘पीडीए’ सोशल इंजीनियरिंग जो लोकसभा चुनाव में हिट रही पर उपचुनाव में फ्लॉप साबित हुई। इस फार्मूले में पड़ी दरार की मरम्मत सपाई खेमा कैसे करता है इसे लेकर कई कयास लग रहे हैं।
मुलायम के दौर के समीकरण में तब्दीली करके अखिलेश ने नए कारगर फार्मूले की खोज की
कभी सपा संस्थापक मुलायम सिंह यादव के दौर में उनकी पार्टी का वोट बैंक का समीकरण हुआ करता था एमवाई यानी मुस्लिम-यादव गठजोड़। इसे ही आधार बनाकर और उसमें बाकी जातियों को जोड़कर सपाई साइकिल यूपी की सियासत में दौड़ती रही थी। हालांकि साल 2014 में शुरू हुए मोदी युग में इस सपाई फार्मूले ने अपनी चमक खो दी। नतीजतन समाजवादी पार्टी सत्ता की रेस में पिछड़ती चली गई। पर पार्टी की कमान संभालने के बाद से ही सपा मुखिया अखिलेश यादव नए-नए प्रयोग करते रहे। इसी कड़ी में उन्होंने पिछड़ा-दलित और मुस्लिम वोटरों को जोड़कर पीडीए नाम से नया जातीय-सामाजिक गुलदस्ता तैयार किया। इस नए किस्म की जातीय गुणा गणित ने लोकसभा चुनाव में कमाल कर दिया। ठीक वैसे ही जैसे कभी बीएसपी सुप्रीमो मायावती ने दलित-ब्राह्मण सोशल इंजीनियरिंग के जरिए यूपी की सियासत में अपना परचम फहरा दिया था।
पीडीए की अंकगणित ने आम चुनाव में सपा को अव्वल नंबर दिला दिए
यूं तो सपा मुखिया अखिलेश यादव ने पीडीए को लेकर साल 2022 के विधानसभा चुनाव में ही प्रयोग शुरू कर दिए थे। पर इसका औपचारिक नामकरण नहीं किया था। पहली बार जून, 2023 में पीडीए फॉर्मूले को प्राथमिकता देने के बाबत सपा सुप्रीमो ने सार्वजनिक रूप से बयान दिया था, तभी दावा किया था कि पीडीए ही एनडीए को हराएगा। ऐसा हुआ भी क्योंकि इस साल हुए आम चुनाव में पीडीए फार्मूले को आजमा कर अखिलेश यादव की पार्टी ने 33.59 फीसदी वोट पाकर 37 संसदीय सीटों पर अपना कब्जा जमा लिया। जबकि इससे पहले साल 2004 में सपा को सर्वाधिक 35 सीटें मिली थीं पर उसे महज 26.74 फीसदी वोट ही मिल सके थे। बीजेपी इस पीडीए फार्मूले की कोई काट तब तक नहीं खोज सकी थी।
हिट फार्मूले को लागू करने के लिए सपाई खेमे ने कमर कस ली थी
आम चुनाव में मिली कामयाबी के बाद से ही सपाई खेमे ने पीडीए समीकरण को ही धार देने की मुहिम छेड़ दी थी। पार्टी ने पीडीए को ‘न्यू इंडिया’ के लिए नया पैगाम बताते हुए इसे सामाजिक एकजुटता का सकारात्मक आंदोलन करार दिया। इसे साल 2027 के यूपी विधानसभा के चुनाव में भी पूरी दमदारी से लागू करने का संदेश दे दिया। बीएसपी के कमजोर होने की वजह से छिटक रहे दलित वोटरों को जोड़ने के लिए कई प्रयास शुरू कर दिए। बीएसपी से सपा में शामिल हुए कई ओबीसी व दलित नेताओं को पार्टी में महत्वपूर्ण जिम्मेदारी सौंपी गई। पार्टी रणनीतिकारों ने पीडीए को धार देने के लिए संविधान-आरक्षण और सांप्रदायिक सौहार्द सरीखे मुद्दों के जरिए बीजेपी सरकार की घेराबंदी की भी तैयारी शुरू कर दी थी।
उपचुनाव के लिए सपा प्रत्याशियों के चयन में सिर्फ पीडीए पर रहा फोकस
यूपी विधानसभा की नौ सीटों के उपचुनाव में प्रत्याशी चयन करते वक्त अखिलेश यादव ने पीडीए की कसौटी का ही पालन किया। सिर्फ ओबीसी-दलित और मुस्लिम चेहरों पर ही दांव लगाया। सवर्ण जाति के प्रत्याशियों से पूरी तरह से परहेज किया। तीन ओबीसी, दो दलित और चार मुस्लिम चेहरों पर दांव लगाया गया। जिनमें से सिर्फ दो को ही जीत मिल सकी। हालांकि पीडीए के तहत चुने गए इन प्रत्याशियो का परिवारवाद से कनेक्ट था। अखिलेश यादव के भतीजे, सपा के पूर्व सांसद की बेटी, पूर्व सांसद की बहू, पूर्व विधायक की पत्नी, वर्तमान सांसद की पत्नी, वर्तमान सांसद के पुत्र को प्रत्याशी बनाया गया था। इस वजह से विरोधियों को सपा पर वार करने का मौका मिल गया। सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के मुखिया ओमप्रकाश राजभर ने तंज कसते हुए कहा कि अखिलेश के पीडीए का मतलब परिवार डेवलपमेंट अथॉरिटी है। उन्होंने सवाल भी पूछा कि पीडीए के पी में क्या केवल यादव आते हैं।
आम चुनाव के बाद महज छह महीनो में ही पीडीए फार्मूले की चमक पड़ी फीकी
उपचुनाव वाली नौ सीटों पर हुई वोटिंग के पैटर्न से जाहिर है कि दलित वोटरों का बड़ा हिस्सा सपा से छिटक गया। तो मुस्लिम वोट बैंक में भी जबरदस्त सेंध लग गई। जिसकी वजह से साल 2022 विधानसभा चुनाव में जीती हुई कटहरी और कुंदरकी सीट भी सपा ने गंवा दीं। कानपुर की सीसामऊ विधानसभा सीट पर सपा को की जीत का मार्जिन घटकर करीब 8000 वोटों तक जा पहुंचा। तो सपा का गढ़ मानी जाने वाली करहल सीट में में जीत का मार्जिन घटकर 14,725 वोटों तक पहुंच गया। जबकि साल 2022 में अखिलेश यादव ने बीजेपी के एसपी सिंह बघेल को 67,504 वोटों के मार्जिन से मात दी थी। सैफई परिवार के गढ़ में जीत का अंतर घटना खतरे की घंटी के तौर पर माना गया।
मात खा चुकी बीजेपी ने पीडीए का नया वर्जन लागू करके फतह हासिल की
जो बीजेपी आम चुनाव में बुरी तरह से पिछड़ गई थी उसने इस बार पीडीए का एंटीडोट तैयार किया था। ‘पीडीए’ के जवाब में सीएम योगी के ‘बंटेंगे तो कटेंगे, एक रहेंगे तो नेक रहेंगे’ सरीखे नारे को बुलंद किया। बीजेपी ने ‘पी’ और ‘डी’ यानी पिछड़े और दलित को तो तवज्जो दी थी पर ‘ए’ से अल्पसंख्यक को अगड़े से रिप्लेस कर दिया था। बीजेपी ने चार ओबीसी, एक दलित और तीन सवर्ण प्रत्याशियों पर दांव लगाया। एक ओबीसी चेहरे को एनडीए की सहयोगी रालोद के टिकट से मैदान में उतारा गया था। भगवा खेमे का या प्रयोग कारगर रहा। लोकसभा चुनाव में 41.37 फीसदी वोट हासिल करने वाली बीजेपी को इस उपचुनाव में सात सीटों के साथ तकरीबन 52 फीसदी वोट पाने में कामयाबी मिली। उसके सात प्रत्याशी तो जीते ही साथ ही करहल सीट पर सपाई जीत का अंतर बेहद घट गया। 31 साल बाद बीजेपी ने मुस्लिम बहुल कुंदरकी जीत पर प्रचंड जीत दर्ज की तो 33 साल बाद सपा के गढ़ कटेहरी को जीत लिया।
पीडीए को बेअसर करने में कुछ फैक्टर रहे बेहद अहम
यूं तो बीजेपी ने सपाई पीडीए की काट के लिए युद्धस्तर पर प्रयास कर ही दिए थे वहीं कई और कारण भी इस फार्मूले की हवा निकालने की वजह बन गए। मसलन, पीडीए पर परिवारवाद हावी नजर आया तो इससे कार्यकर्ताओं में सही संदेश नहीं गया। लोकसभा चुनाव में सपाई जीत में बड़ा योगदान रहा था दलित वोटरों का उसके पक्ष में लामबंद होना। पर इस उपचुनाव में पीडीए के तहत शामिल इन्हीं दलित वोटरों के बड़े हिस्से में सेंधमारी हो गई। उपचुनाव में ओवैसी की पार्टी ने जहां मुस्लिम वोटों में बंटवारा किया वहीं चंद्रशेखर की आजाद समाज पार्टी की वजह से दलित वोटरों का बड़ा हिस्सा सपा से दूर हो गया। हाशिए पर पहुंचने के बावजूद बीएसपी ने भी सपा के वोट काट दिए।
सपा सुप्रीमो को अब अपने फार्मूले में नए सिरे से संशोधन करने होंगे
हालांकि सपा मुखिया ने उपचुनाव में मिली हार पर प्रतिक्रिया देते हुए सिस्टम पर सवाल उठाया तो एक्स पर पोस्ट लिखकर कहा, " अब तो असली संघर्ष शुरू हुआ है… बाँधो मुट्ठी, तानो मुट्ठी और पीडीए का करो उद्घोष ‘जुड़ेंगे तो जीतेंगे!’ जाहिर है कि अखिलेश यादव ने पीडीए को आगे भी जारी रखने का संदेश दिया है। हालांकि सियासी विश्लेषक मानते हैं कि आम चुनाव में पीडीए के जिस चक्रव्यूह ने बीजेपी को संकट में डाला था उसमें दरार आ गई है। जब भी किसी चुनावी फार्मूले की रंगत फीकी पड़ती है तब उसमें जरूरी बदलाव करना वक्त की मांग होती है। सपाई खेमे को भी अब भविष्य की चुनावी चुनौतियों से निपटने के लिए नए सिरे से व्यूह रचना करनी होगी। बदलाव का तौर तरीका ही सूबे में सपाई साइकिल की रफ्तार की दशा और दिशा तय करेगा।