ब्यूरो: ATAL BIHARI VAJPAYEE 100TH BIRTH ANNIVERSARY: पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी जी की आज 100वीं जयंती है। भारत रत्न वाजपेयी जी का अदब के शहर लखनऊ से ताउम्र का नाता रहा। ये रिश्ता किसी सियासी हद तक ही महदूद नहीं था। नफासत के इस शहर का उनसे अटूट रिश्ता था। यहां की रग-रग में वे रच-बस गए थे, यहां के वाशिंदों तक बिताए उनके मौज मस्ती के पल, संजीदगी भरी गूफ्तगू हो या उनके चिरपरिचित चुटीले अंदाज से उपजे कहकहे हों, सब कुछ शहर-ए-लखनऊ के यादों के पन्नों में महफूज हैं।
अदब के शहर ने पूर्व प्रधानमंत्री अटल को कई किरदारों में जाना-समझा
लखनऊ से तकरीबन पांच सौ किलोमीटर की दूरी पर यमुना के किनारे बटेश्वर में जन्मे वाजपेयी जी की कर्मभूमि लखनऊ बन गई। अपने अध्यापक और कवि पिता से मिली काव्य सृजन की विरासत के योग्य वाहक बने अटल बिहारी वाजपेयी ने अपना पहला काव्य पाठ लखनऊ में किया। यहां के कालीचरण इंटर कॉलेज में वे पहली बार कविता के मंच पर आए और पहली बार में ही अपने प्रतिभा से सबको परिचित और प्रभावित कर दिया तब वह इस शहर में पहली बार इसी कॉलेज परिसर में रुके भी थे। छात्र जीवन से ही वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ चुके थे। संघ के बद्री प्रसाद और स्व. भाऊराव देवरस के साथ अटल बिहारी वाजपेयी का लखनऊ आना जाना 1945 के आसपास शुरू हो गया था। एक स्वयंसेवक-प्रचारक के तौर पर वह यहां सक्रिय रहे। यहीं पत्रकार व संपादक बने। राजनेता के तौर पर यहां की गतिविधियों का हिस्सा रहे। फिर एमपी और पीएम की कुर्सी तक जा पहुंचे।
पत्रकारिता और संपादकीय हुनर में पारंगत हुए अटल अवध नगरी में
आजादी के दौर में अटल बिहारी वाजपेई बतौर पत्रकार संघ की तरफ से प्रकाशित ‘राष्ट्रधर्म’ पत्रिका से जुड़े। फिर पांचजन्य, स्वदेश और तरुण भारत के संपादक के रूप में भी लखनऊ में सेवाएं दीं। इस शहर ने अखबार का बंडल कंधे पर लादकर सदर से एपी सेन रोड तक पैदल जाने वाले अटल को देखा तो ट्रेडिल मशीन चलाकर अखबार व पत्रिका छापने की धुन में मस्त अटल के दीदार किए। कंपोजिंग करने वाले ‘कंपोजिटर’ के तौर पर भी अटल ने जिम्मेदारी निभाई। राष्ट्र धर्म के संपादकीय का जिम्मा संभालने के साथ ही सुबह अखबार बांटने का काम भी वो करते थे। कंपोजिंग और मशीन चलाने के बाद साइकिल पर गट्ठर बांधकर पत्रिका लोगों के घरों तक पहुंचाते थे।
सियासी अखाड़े में उतरे अटल को अदब के शहर ने अपनाने से पहले दो बार ठुकराया
साल 1955 में लखनऊ लोकसभा सीट की सांसद विजय लक्ष्मी पंडित के इस्तीफे की वजह से उपचुनाव तय हुआ। जनसंघ की विचारधारा व पार्टी के प्रति समर्पित अटल कुशल वक्ता के तौर पर अपनी धाक जमा चुके थे। उन्हें जनसंघ उम्मीदवार के तौर पर लखनऊ सीट के उपचुनाव के लिए प्रत्याशी बनाया गया। पर यहां से कांग्रेस की शिवराजवती नेहरू 49,324 वोट पाकर उपचुनाव जीत गईं। दूसरे पायदान पर प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के बाबू त्रिलोकी सिंह रहे। जबकि वाजपेई जी को 33,986 वोट ही मिले और वह तीसरे पायदान पर ही रह गए। साल 1957 के आम चुनाव में जनसंघ ने अटल बिहारी वाजपेयी को लखनऊ के साथ ही बलरामपुर और मथुरा सीट से भी चुनाव लड़ाया। बलरामपुर में तो जी मिली पर लखनऊ में वह कांग्रेस के पुलिन बिहारी मुखर्जी से चुनाव हार गए।
जिंदादिल शख्सियत अटल ने चुनावी हार को कभी खुद पर हावी नहीं होने दिया
लखनऊ से लगातार दूसरा संसदीय चुनाव अटल बिहारी वाजपेयी हारे तो जनसंघ के पदाधिकारियों और उनके समर्थकों में मायूसी छा गयी। चुनाव नतीजे घोषित होने के बाद जनसंघ के कार्यालय पर मौजूद लोग हार-जीत की वजहों पर चर्चा कर रहे थे। तभी खामोशी की मुद्रा अख्तियार करके सभी को सुन रहे वाजपेयी जी एकाएक उठ खड़े हुए। कुछ सहयोगियों को साथ लिया और सीधे कूच कर गए चुनाव विजेता पुलिन बनर्जी दादा के घर। राजनीतिक विरोधी अटल को घर के सामने देख बनर्जी के परिजन चौंक गए। जब तक लोग कुछ सोच समझ पाते तब तक अटल मुस्कराते हुए बनर्जी दादा से बोले, ‘दादा जीत की बधाई। चुनाव में तो बहुत कंजूसी की लेकिन अब न करो कुछ लड्डू-वड्डू तो खिलाओ।’ ये सुनना था कि वहां मौजूद हर कोई ठहाके लगाकर खिलखिला उठा।
एकबारगी अदब के शहर ने अटल को अपनाया तो फिर ताउम्र सर-आँखों पर बिठाकर रखा
साल 1957 की शिकस्त के तीन दशक बाद साल 1991 के लोकसभा चुनाव में अटल बिहारी वाजपेई ने फिर से लखनऊ सीट से दांव आजमाया। भारतीय जनता पार्टी के प्रत्याशी के तौर पर चुनाव मैदान में उतरे वाजपेयी जी ने अपने चुनावी भाषण में जो कहा उसने लखनऊ की आवाम को उनका मुरीद बना दिया। दरअसल अपने संबोधन में उन्होंने कहा, ‘आप लोगों ने क्या सोचा था कि मुझ से पीछा छूट जाएगा, ऐसा होने वाला नहीं है। इतनी आसानी से रिश्ता नहीं तोड़ सकते,मेरा नाम भी अटल है।देखता हूं कब तक मुझे सांसद नहीं बनाओगे।’ उनकी ये बात लखनऊ वासियों के दिल के छू गई। वह भारी अंतर से चुनाव जीत गए। फिर तो 1991 से साल 2004 तक लगातार अटल बिहारी वाजपेई ही यहां से सांसद चुने गए। ये शहर उनकी वजह से बीजेपी का गढ़ बन गया। लखनऊ में एक दौर मे एक नारा बहुत मशहूर हुआ करता था, दो बातें न जाना भूल, अटल बिहारी और कमल का फूल। चुनाव में ये नारा बच्चे बच्चे की जुबान पर रट जाता था।
एक दौर के लखनऊ की हर गली कूचे से बाबस्ता हुआ करते थे अटल
अटल जब लखनऊ में बतौर प्रचारक आए तो उनका कोई स्थायी ठिकाना नहीं हुआ करता था। कुछ दिन वह डॉ. दिनेश शर्मा के पिता पं. केदारनाथ शर्मा (पाधाजी) के यहां रुके थे। वही दिनेश शर्मा जो दो बार लखनऊ के मेयर बने, यूपी के डिप्टी सीएम रहे, अभी राज्यसभा सदस्य हैं। स्व. बजरंग शरण तिवारी के हीवेट रोड स्थित घर और मारवाड़ी गली के प्रसिद्ध कलंत्री निवास में ठहरते थे। कुछ दिन सदर में रहे तो एपी सेन रोड स्थित एक भवन में भी ठिकाना बनाया। जिसे अब किसान संघ के कार्यालय के नाम से जाना जाता है। वर्ष 1980 से पहले के लखनऊ में कोई गली व मोहल्ला ऐसा नहीं होगा जिसकी गलियां अटल की चहलकदमी की गवाह न रही हो। अमृतलाल नागर का चकल्लस कार्यक्रम हो या फिर रामनवमी का आयोजन. अटल बिहार वाजपेयी खासे सक्रिय नजर आते थे। पुराने लखनऊ से उनका खासा नाता था। कई परिवारों से उनका चाचा, काका और दद्दा का संबंध बना, बाद में प्रधानमंत्री के ओहदे पर पहुंचने के बाद भी रिश्तों की ये डोर वह थामे रहे।
नवाबों के शहर लखनऊ से जायके के तंतु से भी जुड़े थे पूर्व पीएम अटल
पुराने लखनऊ के चौक इलाके की राम आसरे की मलाई गिलौरी या मलाई पान के अटल बिहारी वाजपेयी बेहद मुरीद थे। चौक चौराहे पर स्थित राजा की ठंडाई भी अटल बिहारी वाजपेयी का पसंदीदा ठिकाना हुआ करता था। यहां उनके साथ बीजेपी के दिग्गज नेता लालजी टंडन भी पहुंचते थे। उस दौर के कई कांग्रेस नेता भी वहां पहुंच जाते थे। सबका जमघट लगता था, गप्पबाजी होती थी, ठहाके गूंजते थे। फिर सब मिलकर ठंडाई पीते थे। अटल जी को यहां की केसर वाली ठंडाई बहुत भाती थी। चौक इलाके में टिल्लू गुरु दीक्षित की चाट और लाटूश रोड की पंडित राम नारायण तिवारी की चाट भी वाजपेयी की पसंदगी की फेहरिस्त में शामिल थी। यहां से जुड़े स्वाद लेने के उनके हर आयोजन के संयोजक हुआ करते थे बीजेपी दिग्गज लालजी टंडन।
लखनऊ और अटल बिहारी वाजपेयी एक दूजे के पर्याय बन गए थे
साल 1996 के संसदीय चुनाव में अटल बिहारी वाजपेयी ने लखनऊ और गांधीनगर से सीटों से एक साथ चुनाव लड़ा। वह दोनों जगह से जीते, लेकिन लखनऊ सीट से लगाव के चलते इसी सीट को बरकरार रखा। 1998, 1999 और 2004 में भी वह लखनऊ से सांसद बने। 1996 से 2004 तक वह तीन बार देश के प्रधानमंत्री रहे। हर बार उन्हें लखनऊ ने ही उन्हें संसद भेजा था। इस शहर से लगाव, दुलार का अक्स उनके बयानों-लेखनी और विचारों में झलकता रहा। “प्यार इतना परायों से मुझको मिला, न अपनों से बाक़ी हैं कोई गिला। मैं जी भर जिया, मैं मन से मरूँ, लौटकर आऊँगा, कूच से क्यों डरूँ”। इन काळजयी पंक्तियों के रचयिता राजनीतिक जगत के शलाका पुरुष अटल को अदब का शहर आदाब अर्ज करता है, नमन करता है।