ब्यूरो: सियासी हाशिए पर पहुंच चुकी बहुजन समाज पार्टी अपना खोया जनाधार पाने को कोशिशें तो बहुतेरी करती रही है। पर उसे चुनाव दर चुनाव नाकामी ही मिली है। लोकसभा चुनाव में पार्टी का दलित-मुस्लिम गठजोड़ का दांव बुरी तरह से फ्लॉप साबित हुआ तो हालिया संपन्न विधानसभा उपचुनाव में भी पार्टी की रणनीति कारगर न हो सकी। अब अपनी पार्टी को मुश्किलों के दौर से उबारने के लिए बीएसपी सुप्रीमो मायावती ने दलित वोटरों के संग जोड़कर मुस्लिम-ब्राह्मण सोशल इंजीनियरिंग के नए प्रयोग पर अमल करने का फैसला किया है।
बीएसपी मे अब मुस्लिम और ब्राह्मण वोटरों में पैठ बनाने की मुहिम तेज होगी
दो दिन पहले शनिवार को लखनऊ में बहुजन समाज पार्टी के मॉल एवेन्यू स्थित मुख्यालय पर पार्टी की एक बड़ी समीक्षा बैठक आयोजित की गई थी। विधानसभा उपचुनाव में बीएसपी को मिली हार के बाद हुई इस बैठक में यूपी और उत्तराखंड के पार्टी पदाधिकारियों ने हिस्सा लिया। हार को लेकर समीक्षा की गई तो वहीं, साल 2027 के विधानसभा चुनाव को लेकर भी विमर्श हुआ। बीएसपी मुखिया मायावती ने पार्टी को नए सिरे से खड़े करने को लेकर चर्चा की। तय हुआ कि अब पार्टी से ब्राह्मण और मुस्लिम समुदाय को जोड़ा जाएगा। इसके लिए विशेष टीमें गठित करने का ऐलान किया गया। सलाउद्दीन सिद्दीकी उर्फ मुस्सन शान, जमशेद खान, शिवकुमार दोहरे को लखनऊ मंडल में मुस्लिम व अन्य समाज को जोड़ने की कमान दी गई। जबकि श्याम किशोर अवस्थी और विपिन गौतम ब्राह्मण समाज को जोड़ने की मुहिम में जुटेंगे।
बीते कई चुनावों से मायावती का मुस्लिम कार्ड बेअसर साबित हुआ
बीएसपी ने साल 2014 में 19 सीटों पर मुस्लिम प्रत्याशी उतारे पर कोई भी खाता नहीं खोल सका। साल 2019 में छह सीटों पर चुनाव लड़े मुस्लिम प्रत्याशियों में तीन को जीत मिली। साल 2022 विधानसभा चुनाव में मायावती ने 88 मुस्लिम प्रत्याशियों पर दांव लगाया पर कोई भी नहीं जीत सका। बीएसपी ने इस साल के लोकसभा चुनाव में फिर से दलित वोट बेस के साथ ही मुस्लिम वोटरों को जोड़ने की खास रणनीति अपनाई। इसके तहत मायावती की पार्टी ने सर्वाधिक 35 मुस्लिम प्रत्याशी चुनावी मैदान में उतारे थे। इनमें से किसी को भी जीत नहीं मिल सकी। ज्यादातर प्रत्याशी बुरी तरह से पिछड़ गए। बस आजमगढ़ में सबीहा अंसारी को 17 फीसदी के करीब वोट हासिल हो सके। जो मुस्लिम प्रत्याशियों में सबसे अधिक वोट शेयर था।
मुस्लिम वोटरों को साधने की कोशिशें हुई फेल तो तल्ख हुईं मायावती
बीते साल हुए निकाय चुनाव में मेयर के 17 पदों में से 11 पर मुस्लिम प्रत्याशी उतारे। पर सभी हार गए। इसके बाद आम चुनाव में भी तस्वीर ऐसी ही रही तो मायावती को ये हालात खासे अखरे। अपनी नाराजगी का इजहार करते हुए मायावती ने बयान दिया था कि, “मुस्लिम समाज जो पिछले कई चुनावों में व इस बार भी लोकसभा आम चुनाव में उचित प्रतिनिधित्व देने के बावजूद भी बीएसपी को ठीक से नहीं समझ पा रहा है तो अब ऐसी स्थिति में आगे इनको काफी सोच समझ के ही चुनाव में पार्टी द्वारा मौका दिया जाएगा। ताकि आगे पार्टी को भविष्य में इस बार की तरह भयंकर नुकसान ना हो”।
बेस वोटबैंक के साथ ही ब्राह्मण वोटरों की कारगर रणनीति भी बाद में फेल हो गई
साल 2007 के विधानसभा चुनाव में बीएसपी ने दलित-ब्राह्मण सोशल इंजीनियरिंग का नया फार्मूला अपनाया। पार्टी ने 86 विधानसभा सीटों पर ब्राह्मणों को टिकट दिया, जिनमें से 41 सीटों पर जीत मिली। हालांकि इसके बाद हुए चुनावों में ये समीकरण असफल साबित हुआ। साल 2014 के आम चुनाव और साल 2017 के विधानसभा चुनाव में पिछड़ने के बाद एकबारगी फिर बीएसपी ने साल 2022 के विधानसभा चुनाव में ब्राह्मण वोटरों को साधने की रणनीति पर अमल किया। पार्टी ने सतीश मिश्रा को सक्रिय किया, जिनका पूरा परिवार सक्रिय रहा। मंडलवार ब्राह्मण सम्मेलन आयोजित किए गए पर बीएसपी का खाता ही नहीं खुल सका। इसके बाद मायावती ने इस बिरादरी से दूरी बना ली। निकाय चुनाव में मेयर पद के लिए एक भी ब्राह्मण प्रत्याशी नहीं उतारा। बीएसपी ने दलित-मुस्लिम समीकरण पर फोकस कर लिया। फिर भी नतीजे बीएसपी के हक मे नहीं आ सके।
आम चुनाव के बाद हुए उपचुनाव में भी ब्राह्मणों पर भी दांव की रणनीति असफल रही
इस साल हुए लोकसभा चुनाव में मायावती ने 11 ब्राह्मण प्रत्याशियों पर दांव लगाया पर कोई भी जीत की कसौटी पर खरा नहीं उतर सका। बस बांदा में मयंक द्विवेदी ढाई लाख से अधिक वोट पाए बाकी जगहों पर ब्राह्मण प्रत्याशी तीसरे और चौथे पायदान पर जा पहुंचे। अभी संपन्न हुए उपचुनाव में बीएसपी ने दो ब्राह्मण प्रत्याशी उतारे। सीसामऊ सीट पर रवि गुप्ता फिर उनकी पत्नी सपना गुप्ता के नाम पर सहमति बनने के बाद बीएसपी ने वीरेन्द्र शुक्ला को चुनाव मैदान में उतार दिया। जो 14 सौ वोटों तक ही सिमट गए। मझवां से उसके प्रत्याशी दीपक तिवारी 34 हजार के करीब वोट पाए।
पार्टी से दूर जा चुके नेताओं की घर वापसी के जरिए दलित वोट बेस को बरकरार रखने की मशक्कत
आगामी 15 जनवरी से बीएसपी अपने संगठन का विस्तार करने की मुहिम छेड़ेगी। चूंकि बीते कुछ वर्षों में पार्टी की विचारधारा के प्रति समर्पित रहे कई दिग्गज नेताओं का बीएसपी से मोहभंग होता चला गया। इस फेहरिस्त में ब्रजेश पाठक, लालजी वर्मा, रामअचल राजभर, नसीमुद्दीन सिद्दीकी, स्वामी प्रसाद मौर्य, बाबू सिंह कुशवाहा, नकुल दुबे, लालजी निर्मल, केके गौतम, इंद्रजीत सरोज, सुनील चित्तौड़, बृजलाल खाबरी, अफजाल अंसारी सरीखे कई दिग्गज नेता शामिल रहे है। मेत सौ से अधिक बड़े नेता शामिल हैं। ऐसे में पार्टी संगठन का विस्तार करने के साथ ही पुराने कर्मठ नेताओं को भी दोबारा जोड़ने की कोशिश की की जाएगी। ये नेता दलित वोट बैंक को लामबंद रखने के साथ ही मुस्लिम व ब्राह्मण वोटरो को भी पार्टी से जोड़ने में कारगर साबित हुए थे।
हाशिए से उबरने के लिए विनिंग फार्मूले की खोज में कई प्रयोग कर रही है बीएसपी
साल 2007 में 30.43 फीसदी वोट शेयर के साथ 206 सीटें पाकर अपने बूते सरकार बनाने वाली बीएसपी का वोटप्रतिशत साल 2022 में महज 12.58 फीसदी रह गया और पार्टी के पास एक सीट रह गई। जबकि साल 2024 के लोकसभा चुनाव में खाता तक न खोल पाने वाली इस पार्टी का वोट शेयर सरक कर 9.39 फीसदी पर जा पहुंचा। सियासी विश्लेषक मानते हैं कि बीएसपी के साठ फीसदी वोट बेस में सपा और बीजेपी ने सेंध लगा दी है। बची खुची कसर पूरी कर दी है चंद्रशेखर की आजाद समाज पार्टी ने। छिटक गए वोटरों को दोबारा अपने पक्ष में लाने के लिए बीएसपी सुप्रीमो भरपूर प्रयास कर रही हैं। पर पार्टी रणनीतिकारों को अभी तक कोई कारगर जातीय फार्मूला नहीं सूझ सका है। बीते चुनावों में अंजाम दी गई सोशल इंजीनियरिंग के कई प्रयोग हुए पर नतीजे नकारात्मक ही रहे।
हालांकि दलित वोटरों का एक हिस्सा अभी भी बीएसपी के साथ मुस्तैद है लिहाजा मायावती की कोशिश है कि इनके साथ ही अगर मुस्लिम और ब्राह्मण वोटर किसी तरह से जुड़ जाए तो सियासत में बीएसपी फिर से धमक कायम कर सकती है। अब पार्टी दलित-मुस्लिम-ब्राह्मण समीकरण के जरिए नए सिरे से व्यूह रचना करने की कोशिश में हैं। पर बसपाई हाथी सत्ता पथ पर आसानी से हुंकार भर सकेगा इसे लेकर आशंकाएं बहुतेरी हैं।