ब्यूरो: UP: साल 2017 के यूपी विधानसभा चुनाव के दौरान जब कांग्रेस और समाजवादी पार्टी एक साथ आए थे तो नारा बुंलद किया गया था ‘यूपी को यह साथ पसंद है’, लेकिन सात साल बाद अब इन दो पार्टियों में सुर गुंजते प्रतीत हो रहे हैं कि ‘आपस में ही ये साथ पसंद नहीं है’, दरअसल, लोकसभा चुनाव में यूपी में अपना परचम फहरा देने वाले गठबंधन के दोनों दलों के दिलों के दरमियान दूरियां पनपती नजर आने लगी हैं। दूसरे प्रदेशों में सपा संग सीट शेयरिंग को लेकर कांग्रेसी बेरुखी जताना-उपचुनाव में सपा का अड़ियल रवैया अपनाना-कांग्रेस का चुनाव से हट जाना सरीखे घटनाक्रमों ने सपा-कांग्रेस गठबंधन पर असर डाला तो अब मुस्लिम समुदाय मे पैठ बनाने की कांग्रेसी कवायद से रिश्तों में तल्खी की अटकलें तेज हो गई हैं।
संभल हिंसा के मुद्दे को लेकर कांग्रेसी सक्रियता को लेकर सपा में माहौल तल्ख दिखा
संभल जिले में बीते दिनों हुई हिंसा के दौरान पांच युवकों की मौत के बाद से माहौल तनावपूर्ण बना हुआ है। यहां के हिंसा प्रभावित परिवारों से मुलाकात करने के लिए बुधवार को लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी और सांसद प्रियंका गांधी का काफिला निकला। पर इन्हें दिल्ली के गाजीपुर बॉर्डर पर ही रोक लिया गया। ये कांग्रेसी दिग्गज संभल पहुंचने में भले ही असफल रहे हों पर मुस्लिम समुदाय को संदेश देने में सफल जरुर हो गए। हालांकि इस कवायद से सपाई खेमा असहज हो गया। पार्टी में पसरी बेचैनी झलकी सपा महासचिव रामगोपाल यादव के बयान से। जिसमें उन्होंने तल्ख होकर कहा, “कांग्रेस पार्टी संसद में संभल का मुद्दा नहीं उठा रही है, लेकिन राहुल गांधी संभल जा रहे हैं. सपा का प्रतिनिधि मंडल पहले ही जा रहा था, लेकिन प्रशासन ने नहीं जाने नहीं दिया. कांग्रेस के लिए अब क्या कहा जाए. कांग्रेस संभल पर सिर्फ औपचारिकता कर रही है. उन्हें पता है कि पुलिस उन्हें संभल जाने नहीं देगी”।
बेस वोटर छिटके तो कांग्रेस का पराभव होने लगा, उसकी सियासी थाती पर दूसरे दल काबिज हो गए
कभी यूपी में दलित-ब्राह्मण-मुस्लिम समीकरण के बूते सत्ता पर काबिज रहने वाली कांग्रेस नब्बे के दशक से पिछड़ती गई। तब राम मंदिर आंदोलन और मंडल आयोग की सिफारिशों लागू होने के बाद से उपजी परिस्थितियों में कांग्रेस का आधार वोट बैंक बिखरने लगा। सूबे के बीस फीसदी मुस्लिम वोटरों के बड़े तबके का भी कांग्रेस से मोहभंग हो गया। दलित और ब्राह्मण वोटर भी बीएसपी और बीजेपी से जुड़ते गए। सपा-बीएसपी और बीजेपी तो सूबे की सियासत में ताकतवर होते चले गए। पर कांग्रेस का पराभव होता गया। नतीजा ये रहा कि कांग्रेस चौथे नंबर की पार्टी बन गई। साल 2019 लोकसभा चुनाव में कांग्रेस महज एक सीट ही पा सकी। राहुल गांधी तक अमेठी से चुनाव हार गए। वहीं, साल 2022 के विधानसभा चुनाव में भी कांग्रेस को महज दो ही सीटें मिल सकीं।
मुस्लिम वोटरों का रुझान बढ़ा तो यूपी में कांग्रेस पंजा फिर से मजबूती हासिल करने लगा
बीते वर्षों में सोनभद्र के उंभा नरसंहार से लेकर हाथरस केस, लखीमपुर खीरी हत्याकांड सरीखे मामलों में प्रियंका गांधी की सक्रियता ने यूपी में कांग्रेस को पुनर्जीवित करना शुरू कर दिया। राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा के बाद मुस्लिम समुदाय का रुख कांग्रेस को लेकर नरम होने लगा। सीएए से लेकर तमाम मुद्दों पर राहुल गांधी के आक्रामक तेवरों ने युवा मुस्लिम वोटरों को आकर्षित किया। कांग्रेस के प्रति मुस्लिम वोटरों के बढ़ते रुझान के चलते ही सपा ने कांग्रेस संग समझौता किया और इस गठबंधन ने आम चुनाव में परचम फहरा दिया। 2022 विधानसभा चुनाव में मात्र 2.33 फीसदी वोटशेयर हासिल करने वाली कांग्रेस ने महज दो वर्ष बाद हुए साल 2024 के लोकसभा चुनाव में 9.39 फीसदी वोट पाकर छह सीटें जीतने में कामयाबी पा ली, पांच सीटों पर पार्टी बहुत कम मार्जिन से पीछे रही।
सूबे के मुस्लिम वोटरों को अपने साथ जोड़ने की सपा-कांग्रेस के दरमियान रस्साकशी तेज
अमेठी में मिली बड़ी जीत से उत्साहित राहुल गांधी की अगुवाई में अब कांग्रेसी खेमे ने अब साल 2027 के विधानसभा चुनाव पर अपना फोकस जमा लिया है। कांग्रेसी रणनीतिकार अब पुराने वोटबैंक को फिर से साथ जोड़ने की कोशिशों में जुट गए हैं। राहुल गांधी और प्रियंका गांधी की गतिविधियों का मुख्य लक्ष्य है दलित और मुस्लिम वोटरों को साधना। पर बिखरे हुए वोटरों को फिर से लामबंद करने की इस कांग्रेसी मशक्कत का एक सिरा जुड़ जाता है सपा से। दरअसल, मुलायम सिंह यादव के दौर से ही मुस्लिम वोटरों के बड़े हिस्से पर समाजवादी पार्टी ने अपना प्रभुत्व कायम कर लिया है। सपाई खेमा कतई नहीं चाहेगा कि उसके वोट बेस में किसी भी तरह की सेंध लग सके। इसी वजह से संभल पहुंचकर मुस्लिम समुदाय को साथ जोड़ने की कांग्रेसी कोशिश सपाईयों की बेचैनी बढ़ा दे रही है।
अडानी के मुद्दे पर राहुल के आक्रामक रुख के चलते टीएमसी के बाद अब सपा भी असहज
देश के बड़े उद्योगपति गौतम अडानी को लेकर राहुल गांधी का रुख बेहद आक्रामक रहा है। वह लगातार अडानी पर निजी हमले करते रहे हैं। पर अडानी मुद्दे को लेकर पहले तृणमूल कांग्रेस ने खुद को अलग कर लिया तो अब समाजवादी पार्ट भी ने भी यही राह अपना ली है। अमरिका द्वारा अडानी समूह पर निवेशकों संग धोखाधड़ी के आरोप लगाए जाने के बाद कांग्रेस ने संसद परिसर में इंडिया गठबंधन के घटक दलों संग विरोध प्रदर्शन किया तब टीएमसी और सपा ने उस प्रदर्शन से पूरी तरह से दूरी बना ली। इस मुद्दे को लेकर पूछे गए सवाल के जवाब में सपा महासचिव रामगोपाल यादव ने कहा कि उनकी पार्टी के लिए सिर्फ संभल हिंसा ही मुद्दा है। इसे लेकर केंद्रीय मंत्री अनुप्रिया पटेल ने सोशल मीडिया पर पोस्ट लिखा कि 99 के चक्र में उलझी और इसे ही अपने पक्ष में जनादेश मान बैठी कांग्रेस के मंसूबे और उसकी रणनीति इंडिया ब्लॉक के सहयोगियों पर भारी पड़ रही है. संसद भवन परिसर में कांग्रेस की अगुवाई में होने वाले प्रदर्शन और इंडिया ब्लॉक की बैठकों से सपा और तृणमूल कांग्रेस की दूरी बताती है कि यह गठबंधन अब बस कागज पर है. जिस अदाणी के मुद्दे पर कांग्रेस ने संसद की कार्रवाई ठप की, उस पर भी इंडिया ब्लॉक में सहमति नहीं है.
दूसरे प्रदेशों में कांग्रेस की बेरुखी के बाद यूपी उपचुनाव में सपा के कड़े तेवरों ने भी रिश्ते तल्ख किए
पिछले साल हुए मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने गठबंधन करने से इंकार कर दिया तो सपा ने 22 प्रत्याशी उतार दिए थे। सपा का खाता तो नहीं खुला पर कांग्रेस का कुछ सीटों पर जरूर नुकसान हो गया। इसके बाद हरियाणा, जम्मू कश्मीर में भी कांग्रेस ने सपा के साथ सीटें साझा करने को लेकर बेरुखी जताई। महाराष्ट्र में महाविकास अघाड़ी (एमवीए) से सपा ने 12 सीटें मांगी थीं। इससे भी कम पर समझौता करने के संकेत दिए थे पर कांग्रेस का दिल नहीं पसीजा और सपा के प्रस्ताव को तवज्जो नहीं दी गई। इसी बीच यूपी में नौ विधानसभा सीटों के उपचुनाव में अखिलेश यादव ने जब कांग्रेस को उसकी पसंदीदा गाजियाबाद, खैर और फूलपुर सीटें देने में आनाकानी की तो कांग्रेस ने चुनाव न लड़ने का ऐलान कर दिया। यहां तक कि सहयोगी सपा के प्रत्याशियों के पक्ष में प्रचार करने से भी कांग्रेसी नेता कन्नी काट गए। इसी के बाद से सपा और कांग्रेस के रिश्तों में सब ठीक न होने को लेकर कई अटकलें लगने लगीं।
दलों के बीच दरार भले न हो दोनों के दिलों में दूरियां झलकने लगी हैं
यूं तो सपा मुखिया अखिलेश यादव और कांग्रेसी आलाकमान राहुल गांधी के दरमियान बेहतरीन कैमिस्ट्री रही है। लिहाजा कई मुद्दों पर इनमें सहमति कायम हो जाती है। पर रिश्तों की ये समझ नीचे के पायदानों तक कारगर होते नहीं नजर आई है। सियासी विश्लेषक मानते हैं कि यूपी में कांग्रेस और सपा का सियासी आधार एक ही है। ऐसे में किसी एक का बढ़ना दूसरे के लिए घाटे का सबब होगा। जब तक कांग्रेस कमजोर रही तब तक सपा के लिए कोई दिक्कत नहीं रही पर कांग्रेस का एक्टिव मोड में आना और मुस्लिम वोटरों को साधने की मशक्कत करना सपा के लिए अखरने वाला मुद्दा है। लोकसभा चुनाव में मिली कामयाबी से उत्साहित राहुल गांधी ने अब यूपी की सियासी पिच पर बैटिंग शुरू कर दी है। दलितों और मुस्लिम मुद्दों को लेकर वह मुखर बने हुए हैं। वोट बैंक के लिहाज से ये स्थिति सपा के लिए खतरे की घंटी है। सपाई खेमे में एक धड़ा कांग्रेस को ज्यादा सियासी स्पेस नहीं देना चाहता है। सियासी समीकरणों के चलते ही सपा और कांग्रेस के दरमियान दूरियों को लेकर कयासों के दौर तेज हो गए हैं|
दो लड़कों की जोड़ी पहली बार साथ आई तब उस गठजोड़ को नुकसान ही हाथ लगा
यूपी में साल 2017 के विधानसभा चुनाव से पहले अखिलेश यादव और राहुल गांधी एक साथ आए। सपा ने 298 सीटों पर प्रत्याशी उतारे जबकि उसकी सहयोगी के तौर पर कांग्रेस 105 सीटों पर चुनाव लड़ी। पर इस गठबंधन से दोनों ही दलों को जबरदस्त नुकसान हुआ। वोटशेयर में 7.7 फीसदी की कमी होने के साथ ही 177 सीटें घट जाने से सपा के हाथों से सत्ता निकल गई। इस गठबंधन को कुल 54 सीटें मिल सकीं जिसमें सपा की 47 सीटें थीं, कांग्रेस सात सीटों पर ही चुनाव जीत सकी। बीजेपी ने प्रचंड बहुमत के साथ कई वर्षों बाद यूपी की सत्ता में वापसी की। पर दूसरी बार साल 2024 में साथ आने के बाद इस जोड़ी ने अपना चमत्कार दिखा दिया।