ब्यूरो: UP DGP Appointment: यूपी की योगी सरकार (CM Yogi GOvt.) ने पुलिस महकमे के मुखिया के पद (UP DGP) पर नियुक्ति के नियम बदलकर नई नियमावली बना दी है। प्रदेश कैबिनेट (Cabinet Meeting) द्वारा नए प्रावधानों को मंजूरी भी हासिल हो गई है। अब यूपीएससी (UPSC) को पैनल भेजने के बजाए राज्य सरकार खुद से अपने चहेते अफसर को डीजीपी बना सकेगी। तीन वर्षों बाद यूपी को स्थायी डीजीपी मिलने के आसार प्रबल हुए हैं। माना जा रहा है कि बीते दिनों स्थायी डीजीपी तैनात न किए जाने के बाबत सुप्रीम कोर्ट द्वारा जारी अवमानना नोटिस के क्रम में ही नियमों में बदलाव किए गए हैं। हालांकि इस फैसले को लेकर सियासी बहस भी तेज हो गई है।
अब प्रदेश स्तरीय मनोनयन समिति तय करेगी कौन होगा यूपी का डीजीपी
यूपी की योगी आदित्यनाथ सरकार ने अपने स्तर से पुलिस महानिदेशक यानी डीजीपी के चयन का नियम बना लिया है। इससे संबंधित यूपी पुलिस बल प्रमुख चयन एवं नियुक्ति नियमावली 2024 को प्रदेश कैबिनेट ने सोमवार को मंजूरी दे दी है। इसमें हाईकोर्ट के सेवानिवृत्त जस्टिस की अध्यक्षता में मनोनयन समिति गठित किए जाने का प्रावधान किया गया है। छह सदस्यीय इस समिति में अध्यक्ष के अलावा मुख्य सचिव, संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) का एक सदस्य, उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष या उनकी तरफ से नामित अधिकारी के अलावा अपर मुख्य सचिव या प्रमुख सचिव गृह व पूर्व डीजीपी शामिल रहेंगे।
कम से कम दो साल का कार्यकाल होगा डीजीपी का, पर समय से पूर्व भी हटाने के हैं प्रावधान
प्रदेश के पुलिस महकमे को प्रभावशाली नेतृत्व प्रदान करने के लिए डीजीपी का चयन करते वक्त संबंधित अफसर की सेवा अवधि, बेहतर सेवा का रिकॉर्ड और अनुभव को तवज्जो मिलेगी। मनोनयन समिति उन्हीं आईपीएस अफसरों के नाम पर विचार करेगी जिनके रिटायर होने में छह महीने से अधिक का समय शेष होगा। केवल उन नामों पर ही विचार किया जाएगा, जो वेतन मैट्रिक्स के स्तर 16 में डीजीपी के पद पर कार्यरत होंगे। डीजीपी की नियुक्ति न्यूनतम दो वर्ष के लिए की जाएगी। पर किसी डीजीपी के कामकाज से संतुष्ट न होने पर समय से पहले भी हटाया जा सकेगा। पर पद से हटाने के लिए सुप्रीम कोर्ट द्वारा पारित दिशा-निर्देशों का पालन किया जाएगा। किसी आपराधिक मामले में या भ्रष्टाचार के मामले में लिप्त होने पर या फिर कर्तव्यों एवं दायित्वों का निर्वहन करने में विफल होने पर दो वर्ष से पहले भी पद से मुक्त किया जा सकेगा।
अभी तक यूपीएससी को भेजे गए पैनल के जरिए डीजीपी तय करने का प्रावधान था
यूपी में भी अभी तक अन्य राज्यों के मानिंद सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के क्रम में डीजीपी की तैनाती का नियम लागू था। इसके तहत यूपीएससी को वरिष्ठतम आईपीएस अफसरों के नाम का पैनल भेजा जाता था। जिसमें से तीन नाम तय करके राज्य सरकार को भेजा जाता था, जिसमें से विजिलेंस क्लीयरेंस के बाद डीजीपी का चयन किया जाता था। दरअसल, ये प्रावधान इसलिए बनाए गए थे क्योंकि कई राज्यों से शिकायतें आ रही थीं कि पसंदीदा अफसर को रिटायरमेंट के ऐन पहले एक्सटेंशन देकर डीजीपी बना दिया जाता है। इससे कई योग्य आईपीएस अफसर पिछड़ जाते हैं और पुलिस मुखिया के पद पर तैनाती में राजनीतिक दखलंदाजी ज्यादा बढ़ती है। इस समस्या के निवारण के लिए ही साल 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने फिर सभी राज्यों को निर्देश दिया था कि किसी भी पुलिस अफसर को कार्यवाहक पुलिस मुखिया न बनाए। इस पद के दावेदारों के नाम संघ लोक सेवा आयोग के पास विचार के लिए अवश्य भेजा जाए।
पर चहेते चेहरों की तैनाती के लिए कई राज्यों ने सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों की अनदेखी की
स्थायी डीजीपी ही नियुक्त करने के सुप्रीम कोर्ट के सख्त आदेशों के बावजूद की दो वर्ष पूर्व फरवरी, 2022 में आंध्र प्रदेश में राजेंद्र रेड्डी कार्यवाहक पुलिस प्रमुख बना दिए गए। इसके बाद अभिनव कुमार को उत्तराखंड में कार्यवाहक डीजीपी के पद पर तैनाती दी गई। यूपी भी शीर्ष अदालत के आदेशों की नाफरमानी के मामले में पीछे नहीं रहा। दरअसल, योगी सरकार के पहली बार सत्ता में आने के बाद 24 अप्रैल, 2017 को सुलखान सिंह डीजीपी बने थे फिर ओपी सिंह और हितेश चंद्र अवस्थी को मौका मिला। 2 जुलाई 2011 को मुकुल गोयल को स्थायी डीजीपी बनाया गया। पर सीएम की नाराजगी के चलते उन्हें 11 मई, 2022 को पद से हटा दिया गया। इसके अगले दिन 12 मई, 2022 को डा देवेन्द्र सिंह चौहान को कार्यवाहक डीजीपी बना दिया गया। फिर डॉ आर के विश्वकर्मा और फिर विजय कुमार भी कार्यवाहक डीजीपी के पद पर तैनात किए गए। 1 फरवरी, 2024 को प्रशांत कुमार को भी अस्थायी डीजीपी के तौर पर नियुक्ति दे दी गई।
अस्थायी डीजीपी तैनाती के चलन से नाराज सुप्रीम कोर्ट ने यूपी सहित कई राज्यों को अवमानना की नोटिस जारी की थी
गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट की अधिवक्ता सावित्री पाण्डेय ने एक याचिका दाखिल करके शीर्ष अदालत से 22 सितंबर, 2006 के पुलिस सुधार फैसले के दिशा-निर्देशों को लागू करने के मांग करते हुए स्थायी डीजीपी की नियुक्ति के निर्देशों का कई राज्यों द्वारा पालन न किए जाने का आरोप लगाया था। इसकी सुनवाई करते हुए चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय बेंच ने इसी साल 30 सितंबर को यूपी सहित सात राज्यों को अवमानना की नोटिस जारी की थी। सुप्रीम कोर्ट ने छह हफ्तों के भीतर जवाब दाखिल करने को कहा था कि संबंधित राज्य स्थायी डीजीपी क्यों नियुक्त नहीं कर रहे हैं। इस संबंध में शीर्ष अदालत के दिशा निर्देशों को दरकिनार करके कार्यवाहक डीजीपी की तैनाती क्यों की जा रही है, जबकि कई सीनियर आईपीएस अफसरों की अनदेखी हो रही है। यूपी के अलावा उत्तराखंड, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, ओडिशा, पश्चिमी बंगाल, झारखंड को भी इन सवालों जवाब देना है।
प्रशांत कुमार के स्थायी डीजीपी बनने का मार्ग प्रशस्त हुआ, इस मुद्दे को लेकर सियासी बहस भी तेज हुई
जानकार मानते हैं कि सुप्रीम कोर्ट की नोटिस से उपजी विधिक चुनौतियों से बचने के लिए यूपी सरकार ने नई नियमावली तैयार करने की राह चुनी। चूंकि मौजूदा कार्यवाहक डीजीपी प्रशांत कुमार का कार्यकाल 31 मई, 2025 तक का है। यानी उनके रिटायर होने मे छह महीने से ज्यादा वक्त है ऐसे में नई नियमावली के तहत उनका स्थायी दर्जा तय किया जा सकता है। वहीं, योगी सरकार की इस कवायद से अब स्थायी डीजीपी नियुक्ति की ताकत अब केंद्र के बजाए राज्य सरकार के हाथों में आ गई है। इसे लेकर सियासी बयानबाजी भी नजर आने लगी है। सपा मुखिया अखिलेश यादव ने सोशल प्लेटफार्म एक्स पर पोस्ट लिख कर तंज कसा, ''सुना है किसी बड़े अधिकारी को स्थायी पद देने और और उसका कार्यकाल 2 साल बढ़ाने की व्यवस्था बनायी जा रही है… सवाल ये है कि व्यवस्था बनाने वाले ख़ुद 2 साल रहेंगे या नहीं। कहीं ये दिल्ली के हाथ से लगाम अपने हाथ में लेने की कोशिश तो नहीं है। दिल्ली बनाम लखनऊ 2.0।'' बहरहाल, पंजाब, तेलंगाना-आंध्र प्रदेश के बाद अब डीजीपी की नियुक्ति की नियमावली बनाने वाला यूपी चौथा राज्य बन गया है। फिलहाल नियमों में तब्दीली के इस नए घटनाक्रम से केंद्र बनाम राज्य की पुरानी बहस भी एकबारगी फिर छिड़ गई है।
पुलिस सुधार के लिए देश में कई आयोग बने,सुप्रीम कोर्ट ने कड़े दिशा निर्देश दिए, पर अमल में न लाए जा सके
14 मई, 1977 को तत्कालीन केंद्र सरकार ने आईएएस अफसर धर्मवीर की अध्यक्षता में राष्ट्रीय पुलिस आयोग गठित किया। जिसने फरवरी 1979 से 1981 के बीच कुल आठ रिपोर्ट दीं। पर इस आयोग की सिफारिशें लागू न हो सकीं। इसके बाद यूपी के डीजीपी रहे आईपीएस अफसर प्रकाश सिंह ने साल 1996 में सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल करके पुलिस सुधार की मांग उठाई। इनकी याचिका की सुनवाई करते हुए साल 2006 में सुप्रीम कोर्ट ने राजनीतिक दबाव से पुलिस प्रशासन को मुक्त करने की दिशा में ऐतिहासिक फैसला सुनाया। साल 2006 के पुलिस सुधार आदेश पर अमल की समीक्षा के लिए 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने जस्टिस केटी थॉमस की अगुआई में 3 सदस्यों वाली कमेटी गठित की थी। इस समिति का मानना था कि राज्य सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों को दरकिनार के लिए कई पैंतरे अपनाते हैं। मॉडल पुलिस एक्ट 2006 को सोली सोराबजी सहित कई सीनियर नौकरशाहों-पुलिस अफसरों व सिविल सोसाइटी के लोगों ने मिलकर तैयार किया था। इसके अलावा जूलियो रिबेरियो, के पद्मनाभैया और वीएस मलिमथ की पुलिस सुधार संबंधी रिपोर्ट्स भी खासी अहम मानी जाती हैं। पर पुलिस सुधार की ज्यादातर सिफारिशें फाइलों में ही कैद रह गईं।