रामपुर तिराहा कांड के दोषी पुलिसकर्मियों को मिली उम्रकैद की सजा, उत्तराखंडवासियों के जख्मों पर लगा मरहम
संपादक, यूपी- ज्ञानेंद्र शुक्ल
ब्यूरोः आज जिस उत्तराखंड राज्य को देश के अहम पहाड़ी इलाके में शुमार किया जाता है, उसके सृजन की पीड़ा से जुड़ा है रामपुर तिराहा कांड. मुजफ्फरनगर में अदालत ने इस कांड से जुड़े 2 पुलिसकर्मियों को दोषी करार देते हुए उम्रकैद की सजा सुनाई है। इस कांड की तुलना जलियावालांबाग हत्याकांड से भी किया है।
आज से तीस वर्ष पूर्व उत्तर प्रदेश से अलग राज्य की मांग को लेकर आंदोलित लोगों का एक जत्था तत्कालीन उत्तर प्रदेश के पहाड़ी इलाकों से निकल कर दिल्ली की जानिब जा रहा था. लेकिन मुजफ्फरनगर के रामपुर तिराहे पुलिसकर्मियों ने बैरिकेडिंग करके आंदोलनकारियों की गाड़ियों बसों को रोक लिया. यहां आंदोलनकारियों और पुलिस में विवाद हुआ जो हिंसक झड़प में तब्दील हो गया. यहां हुए पथराव में तत्कालीन डीएम अनंत सिंह भी चोटिल हुए. इसके बाद तो पुलिस अपने रौद्र रूप में आ गई. पुलिसिया फायरिंग में 7 जानें चली गईं, जबकि देर रात कई बसों को रोककर उसमें सवाल लोगों से मारपीट और लूटपाट की गई, कई आंदोलनकारी महिलाओं के साथ दुष्कर्म की वारदात को अंजाम दिया गया. उत्तराखंड संयुक्त संघर्ष समिति द्वारा इस केस के बाबत इलाहाबाद हाई कोर्ट में याचिका दायर की गई.
06 दिसंबर 1994 को हाईकोर्ट ने सीबीआई से इस कांड पर रिपोर्ट मांगी. सीबीआई ने कोर्ट में सौंपी रिपोर्ट में स्वीकार किया कि उत्तराखंड आंदोलन के दौरान सात सामूहिक दुष्कर्म के मामले हुए, 17 महिलाओं से छेड़छाड़ की गई और 28 हत्याएं की गईं. सीबीआई के पास कुल 660 शिकायतें आई थीं. 12 मामलों में पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों के खिलाफ चार्जशीट दाखिल की गई थी. 9 जनवरी, 1995 में इलाहाबाद हाई कोर्ट में आरोपित अफसरों ने सरकारी अनुमति के बिना मुकदमा चलाए जाने को लेकर याचिका दायर की, जिस पर कोर्ट ने फैसला दिया कि हत्या, दुष्कर्म समेत संगीन अपराधों के मामले में शासकीय अनुमति की ज़रूरत ही नहीं है. कोर्ट ने इसे मानवाधिकार उल्लंघन मानते हुए मृतकों के परिजनों और दुष्कर्म पीड़ित महिलाओं को 10-10 लाख रुपये मुआवजा और छेड़छाड़ की शिकार महिलाओं और पुलिस हिरासत में उत्पीड़न के शिकार आंदोलनकारियों को 50-50 हज़ार रुपये मुआवजा देने का आदेश दिया. इस निर्णय के खिलाफ अभियुक्तों और यूपी सरकार ने चार विशेष अनुमति याचिकाएं सर्वोच्च न्यायालय में दाखिल कीं. 13 मई, 1999 को सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट का आदेश निरस्त कर दिया.
सुप्रीम कोर्ट ने साफ किया जिनको मुआवजा दिया जा चुका है, उनसे वापस नहीं लिया जाएगा. शीर्ष अदालत ने अपने फैसले में सीबीआई जांच के आदेश को बरकरार रखा. सीबीआई ने 12 मामलों में चार्जशीट दाखिल की. इनमें 7 मामले मुजफ्फरनगर में जबकि 5 मामले उत्तराखंड के हैं. इसी बीच आरोपियों ने केस को इलाहाबाद से लखनऊ कोर्ट ट्रांसफर करने के लिए अर्जी दाखिल कर दी. 4 मामले ट्रांसफर कर दिए जबकि एक मुकदमा इसलिए रुका क्योंकि अर्ज़ी नहीं थी. इस बीच उत्तराखंड अलग राज्य बन गया जिसके बाद सीबीआई ने 5 अभियुक्तों के खिलाफ धारा 304, 307 व 324 व 326, सपठित-34 आईपीसी के तहत आरोप पत्र दाखिल किया.
सीबीआई कोर्ट के जज ने इसे 302, 307, 324, 326 व सपठित-34 के तहत केस नंबर 42-1996 में चार्ज फ्रेम किए. तत्कालीन डीएम अनंत कुमार सिंह भी इस कांड के आरोपी बनाए गए. पर 22 जुलाई 2003 को अनंत कुमार सिंह ने 42/1996 केस में आरोप पत्र को उत्तराखंड हाईकोर्ट में चुनौती दी. कोर्ट ने अनंत कुमार सिंह की याचिका स्वीकार करते हुए सीबीआई कोर्ट का आदेश निरस्त कर दिया. 22 अक्टूबर, 2003 को आंदोलनकारियों ने पुनर्विचार याचिका दाखिल की तो जस्टिस पीसी वर्मा व जस्टिस एमसी घिल्डियाल की खंडपीठ ने पूर्व के आदेश को रिकॉल कर लिया.
28 मई, 2005 को जस्टिस इरशाद हुसैन व जस्टिस राजेश टंडन की खंडपीठ ने मामले को निरस्त कर दिया. 2007 को तत्कालीन एसपी मुजफ्फरनगर एसपी सिंह भी सीबीआई कोर्ट से बरी होने में कामयाब हो गए. इस केस में हाजिर माफ़ी गवाह कांस्टेबल संतोष गिरी की बॉम्बे एक्सप्रेस में गाजियाबाद के समीप गोली मारकर हत्या कर दी गई थी. इसके बाद सीबीसीआईडी ने केस में फाइनल रिपोर्ट लगा दी. आंदोलनकारियों पर गोलियां चलाने के मामले में उत्तराखंड हाईकोर्ट ने एक पुलिसकर्मी को सात साल जबकि दो अन्य पुलिसकर्मियों को 2-2 साल की जेल की सजा सुनाई. जाहिर सी बात है कि इस केस में दोषियों को कानून के शिकंजे तक पहंचाने और पीड़ितों को इंसाफ दिलाने के लिए लंबी कानूनी लड़ाई चल रही है. मार्च 2023 में मुजफ्फरनगर एडीजे-7 को इस केस की सुनवाई के लिए अधिकृत किया गया. 3 मार्च 2023 को एक साथ 17 पुलिसकर्मी अदालत में हाजिर हुए थे.
कोर्ट ने बीते शुक्रवार को सामूहिक दुष्कर्म, छेड़छाड़, लूट और शील भंग करने के आरोप में आरोपित सिपाही मिलाप सिंह व वीरेन्द्र प्रताप को दोष सिद्ध करार दिया. आज सोमवार को अपर जिला एवं सत्र न्यायालय संख्या-7 के पीठासीन अधिकारी शक्ति सिंह ने इन दोनों सिपाहियों को आईपीसी की धारा 376 जी, 323, 354, 392, 509 व 120 बी के तहत दोषी मानते हुए उम्रकैद की सजा सुना दी है. इन दोनों पर चालीस हजार रुपए का अर्थदंड भी लगाया गया है. आज सजा के बाबत सुनवाई करते हुए अदालत ने इस कांड को जलियावाला बाग जैसी घटना के तुलना की, अदालत ने यह भी कहा कि पुलिस ने कई मामलों में वीरता का परिचय दिया प्रदेश का मान सम्मान बढ़ाया, लेकिन यह देश और न्यायालय की आत्मा को झकझोर देने वाला प्रकरण है. बहरहाल, इस फैसले ने उत्तराखंड के आंदोलकारियों के जख्मों पर कुछ मरहम जरूर लगाया है.
रामपुर तिराहा कांड में इन आंदोलनकारियों की गई थी जान
रामपुर तिराहा कांड में यूपी और उत्तराखंड में 54 मुकदमों में लंबी विवेचना के बाद 30 मुकदमों में चार्जशीट दाखिल हुई. ज्यादातर मुकदमे उत्तराखंड के देहरादून, नैनीताल और यूपी के मुरादाबाद में चले जबकि सात मामलों को लेकर मुजफ्फरनगर में सुनवाई हुई, ये सात मामले हैं,
केस-1: सरकार बनाम मिलाप सिंह (छेड़छाड़ व दुष्कर्म मामला- इसी मामले में 14 मार्च को अदालत ने आरोपी पुलिसकर्मियों को दोषी करार देते हुए फैसला सुनाया.
केस-2: सरकार बनाम राधामोहन द्विवेदी (छेड़छाड़ व दुष्कर्म मामला)- 4 जनवरी, 2024 को चश्मदीद ने अदालत में कंगन लूट के आरोपों की पुष्टि की, इस केस में गवाही की कार्यवाही प्रचलित है.
केस-3: सरकार बनाम ब्रजकिशोर सिंह (फर्जी हथियार बरामदगी)---कांधला के तत्कालीन थानाध्यक्ष बृजकिशोर सिंह पर आरोप हैं कि उत्तराखंड आंदोलनकारियों पर पुलिस फायरिंग के बाद उन्होंने उत्तराखंडियों की तलाशी में फर्जी हथियार बरामदगी दिखाई और मुकदमा दर्ज किया. आरोप तय होने के बाद मामले में सुनवाई चल रही है. एक अन्य मामला सीबीआई बनाम दाताराम आजाद भी लंबित चल रहा है.
केस-4: सरकार बनाम एसपी मिश्रा ( शव गंगनहर में बहाया जाना)--खतौली के तत्कालीन निरीक्षक एसपी मिश्रा को भी आरोपी बनाया गया था. मिश्रा के खिलाफ धारा 120 बी का मुकदमा चल रहा है. खतौली के तत्कालीन इंस्पेक्टर एसपी मिश्रा पर आरोप था कि देहरादून के मनियावाला निवासी राजेश नेगी की पुलिस गोली से मौत होने के बाद उसके शव को साथी पुलिसकर्मियों की मदद से जौली गंगनहर में फेंक दिया था. इस मामले में आरोप तय हो चुके हैं.
केस-5: सरकार बनाम राजेन्द्र सिंह (जीडी फाड़ना व उसमें छेड़छाड़ करना)-आरोपियों की मौत होने के कारण 6 जनवरी, 2024 को फाइल बंद
केस-6: सरकार बनाम मोती सिंह-- मुजफ्फरनगर की कोतवाली के तत्कालीन प्रभारी निरीक्षक मोती सिंह ने ही उत्तराखंडियों के खिलाफ मामला दर्ज कराया था. सीबीआई जांच के बाद मोती सिंह को फर्जी लिखा पढ़ी का आरोपी बनाया था. मोती सिंह की मौत होने के कारण इस मुकदमे की फाइल अक्टूबर 2012 में बंद हो गई.
केस-7: सरकार बनाम राजबीर सिंह ( फर्जी मेडिकल रिपोर्ट बनाना)-- मुजफ्फरनगर में जीडी (जनरल डायरी) फाड़ कर उसके स्थान पर झूठा साक्ष्य गढ़ने के आरोप से संबंधित दो अलग-अलग मुकदमों की फाइल बंद कर दी गई. सीबीआई जांच में खुलासा हुआ था कि छपार के तत्कालीन थानाध्यक्ष राजबीर ने तत्कालीन एसपी राजेंद्र पाल सिंह के निर्देश पर जीडी में फर्जी लिखा पढ़ी कर हेराफेरी की थी. एसपी तो साक्ष्यों के अभाव में बरी हो गए, जबकि थानाध्यक्ष के खिलाफ आरोप तय हुए थे, राजवीर सिंह की 2023 को लंबी बीमारी के बाद मौत हो गई थी. दोनो मामलों के तीन अन्य आरोपित प्रीतम सिंह, दाताराम और राजेन्द्र सिंह की पहले ही मौत हो चुकी है. इस कांड में आरोपी मोती सिंह, झम्मन सिंह, राजपाल सिंह, महेश चंद शर्मा और नेपाल सिंह की भी मृत्यु हो चुकी है. सीबीआई इसकी आख्या भी अदालत में पेश कर चुकी है.
अब तक ये अभियुक्त हो चुके हाजिर
अब तक अदालत में अभियुक्त राधा मोहन, कृपाल सिंह, सुमेर सिंह, देवेंद्र सिंह, तमकीन अहमद, मिलाप सिंह, सुरेंद्र सिंह, बृजेश कुमार, कुंवरपाल सिंह, प्रबल प्रकाश, रणपाल सिंह, वीरेंद्र कुमार, संजीव कुमार भारद्वाज, राकेश कुमार सिंह, सतीश चंद शर्मा, कुशलपाल सिंह, वीरेंद्र प्रताप, विजय पाल सिंह, नरेश त्यागी पेश होकर अपने वारंट रिकॉल करा चुके हैं।
अभियुक्त विक्रम सिंह तोमर भगोड़ा घोषित
सरकार बनाम राधामोहन द्विवेदी (छेड़छाड़ व दुष्कर्म मामला) मामले का आरोपी दरोगा विक्रम सिंह तोमर साल 2005 से ही फरार है. इसकी पत्रावली पर सुनवाई के बाद उसे भगोड़ा घोषित कर दिया गया है.