ब्यूरो: UP News: सपा सांसद रामजीलाल सुमन द्वारा राज्यसभा में राणा सांगा को लेकर की गई टिप्पणी से उठा विवाद न सिर्फ बरकरार है बल्कि तूल पकड़ता जा रहा है। राजपूत करणी सेना ने आगरा से लेकर प्रदेश के तमाम हिस्सों में आंदोलन का बिगुल बजा दिया है। बीजेपी इस मामले को लेकर आक्रामक तेवर जता चुकी है वहीं, इस मुद्दे को लेकर सपाई खेमा असमंजस की स्थिति में हैं क्योंकि ये क्षत्रिय समाज की भावना से जुड़ा मुद्दा है। इस वर्ग के वोट बैंक की नाराजगी पार्टी की भविष्य की उम्मीदों पर भारी पड़ सकती हैं। बहरहाल, इस प्रकरण ने एकबारगी फिर से यूपी की सियासत में क्षत्रिय वोट बैंक से जुड़े पहलुओं को लेकर बहस छेड़ दी है।
शासक वर्ग व जमींदारी से जुड़े क्षत्रिय वर्ग की स्थानीय स्तर पर मजबूत पकड़ रही है
कभी राजे रजवाड़े-जमींदार रहे क्षत्रिय समाज का अभी भी कई विधानसभा क्षेत्रों में जमीनी स्तर पर मजबूत प्रभाव व प्रभुत्व कायम है। आबादी के लिहाज से 6-7 फीसदी की आबादी वाले क्षत्रिय वोटरों का यूपी की सियासत में व्यापक असर रहा है। पश्चिम से पूर्वी हिस्से तक की कई विधानसभा सीटों पर इस वर्ग के वोटर निर्णायक साबित होते रहे हैं। सूबे में इस बिरादरी से से पांच सीएम रहे तो वीपी सिंह और चंद्रशेखर सरीखी हस्तियां देश के प्रधानमंत्री बने। मौजूदा विधानसभा में 49 विधायक क्षत्रिय समाज से ताल्लुक रखते हैं। जिनमें बीजेपी गठबंधन से 43, सपा से 4, बीएसपी से एक विधायक है। जनसत्ता पार्टी से राजा भैया हैं। मौजूदा दौर की सियासत में वोट बैंक के तौर पर इस वर्ग के उदय के सिरे जुड़े हैं ढाई दशक पहले के यूपी में हुए कुछ अहम घटनाक्रमों से। इसे सिलसिलेवार समझते हैं।
राजा भैया मुकदमा प्रकरण में मुलायम ने अपनाया कड़ा रुख तो क्षत्रिय वर्ग का जुड़ाव सपा से हो गया
साल 2002 में राजनाथ सिंह सरकार के सत्ता से हटने के बाद मायावती मुख्यमंत्री बनीं। इसके बाद बीएसपी मुखिया ने कुंडा राजघराने के रघुराज प्रताप सिंह उर्फ राजा भैया पर शिकंजा कसना शुरू कर दिया। उनके खिलाफ पोटा के तहत कार्रवाई करते हुए जेल में बंद कर दिया। इस उत्पीड़न की कार्रवाई का नकारात्मक संदेश क्षत्रिय बिरादरी में गया। राजा भैया के मुद्दे को लेकर मुलायम सिंह यादव ने सड़क से लेकर संसद तक तीखा विरोध किया। जिसके बाद क्षत्रिय समाज के बड़े हिस्से की पसंदीदा पार्टी सपा बन गई। साल 2003 में मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व वाली सपा सरकार में अमर सिंह तो सर्वाधिक ताकतवर नेता बनकर उभरे। मोहन सिंह, भगवती सिंह सरीखे कद्दावर सपा नेताओं का क्षत्रिय समाज में बड़ा सम्मान था। एमवाई यानी मुस्लिम यादव गठजोड़ की राजनीति करने वाले मुलायम सिंह यादव ने क्षत्रिय नेताओं को भी खासी अहमियत दी। इन वजहों से क्षत्रिय बिरादरी का बड़ा हिस्सा सपा से जुड़ता चला गया।
सैफई परिवार में चाचा-भतीजे की अदावत के दौर में क्षत्रिय वर्ग का सपा से मोहभंग बढ़ा
साल 2007 से 2012 का यूपी की राजनीति दलित-ब्राह्णण गठजोड़ पर आधारित थी। साल 2012 में यूपी में समाजवादी पार्टी ने बहुमत हासिल किया। तब अखिलेश यादव की बतौर मुख्यमंत्री ताजपोशी हुई थी। उस चुनाव में 48 क्षत्रिय बिरादरी के विधायक चुनाव जीते थे जिनमें से सर्वाधिक 38 सपाई खेमे के थे। इस समर्थन से प्रसन्न होकर अखिलेश यादव ने 11 क्षत्रिय विधायकों को मंत्री पद से नवाजा था। हालांकि 2014 में केंद्र में मोदी युग के उदय के बाद तस्वीर बदलने लगी। क्षत्रिय समाज का झुकाव बीजेपी की ओर मुड़ने लगा। पूर्व पीएम चंद्रशेखर के बेटे नीरज शेखर जो कभी अखिलेश यादव के करीबी माने जाते थे उन्होंने सपा छोड़कर बीजेपी का दामन थाम लिया। अखिलेश-शिवपाल की अदावत गहराने और साल 2017 में यूपी में योगी आदित्यनाथ की सरकार बनने के बाद से समीकरण तेजी से बदले। तब सपाई खेमा भीतर खाने की चुनौतियों से कमजोर हो चला था जबकि यूपी में योगी युग की शुरुआत हो चली थी।
एक के बाद एक प्रभावशाली क्षत्रियों नेताओं का सपा से नाता टूटता गया
साल 2017 मे सत्ता परिवर्तन के बाद यूपी की कमान संभाली योगी आदित्यनाथ ने। इसके बाद विपक्षी खेमों में उथल पुथल मचना शुरू हो गया। एक दर्जन से अधिक क्षत्रिय नेता सपा का दामन झटक कर बीजेपी या बीएसपी का हिस्सा बन गए। इनमें मयंकेश्वर शरण सिंह, राज किशोर सिंह, बृजभूषण सिंह, राजा अरिदमन सिंह, कृतिवर्धन सिंह, आनंद सिंह, अक्षय प्रताप सिंह और यशवंत सिंह सरीखे दिग्गज नेता शामिल थे। कभी अखिलेश सरकार में मंत्री रहे कद्दावर नेता विनोद कुमार सिंह उर्फ पंडित सिंह का कोरोना से निधन हो गया। इन नेताओं के साथ न होने से सपा को भारी नुकसान हुआ। धीरे धीरे बड़ी तादाद में सपा के क्षत्रिय नेताओं ने बीजेपी में नया ठिकाना तलाश लिया। सपा विधायक राकेश प्रताप सिंह और अभय सिंह ने बागी तेवर अपनाकर सपा छोड़ दी और बीजेपी के बगलगीर हो गए। तो कभी सपा के बड़े समर्थक माने जाने वाले रघुराज प्रताप सिंह उर्फ राजा भैया ने राज्यसभा चुनाव के दौरान बीजेपी को समर्थन देकर सपा से स्पष्ट दूरी बना ली। और जनसत्ता पार्टी के जरिए सियासत को धार देने में जुट गए, इनकी अखिलेश यादव से तल्खी सुर्खियों का हिस्सा बनती रही।
पीडीए पर फोकस बढ़ा तो अन्य सवर्ण वर्गों के मानिंद क्षत्रिय भी सपा की प्राथमिकता से दूर हुए
समाजवादी पार्टी की कमान पूरी तरह से अपने हाथों में लेने के बाद अखिलेश यादव ने ओबीसी व मुस्लिम वोटरों के साथ ही दलित वोटबैंक को भी साधने की रणनीति को तवज्जो दी। साल 2019 के चुनाव के बाद ऐसा संदेश गया कि मानों सपा का क्षत्रिय वोट बैंक से मोहभंग हो गया। हालांकि साल 2022 के विधानसभा चुनाव और साल 2024 के लोकसभा चुनाव में फिर से अखिलेश यादव क्षत्रिय वोटरों को अपने पक्ष में करने की कवायद करते नजर आए। पीडीए यानी पिछड़ा-दलित और अल्पसंख्यक फार्मूले को धार दे रही सपा की प्राथमिकता में अगड़ा वर्ग के वोटर पिछड़े तो क्षत्रिय वोटर भी उससे छूटते नजर आए। हालांकि मौजूदा दौर में अभी भी सपा में अरविंद सिंह, योगेश प्रताप सिंह, अरविंद सिंह गोप, उदयवीर सिंह और ओमप्रकाश सिंह सरीखे दिग्गज क्षत्रिय चेहरे मौजूद हैं।
करणी सेना के बहाने बीजेपी पर हमलावर सपाई खेमा सधी हुई रणनीति पर अमल करने की राह पर है
गौरतलब है कि अब सपा मुखिया अखिलेश यादव साल 2027 के विधानसभा चुनाव पर फोकस कर चुके हैं। वे अपने मौजूदा वोट बैंक को सहेजने और वोटबेस के दायरे में इजाफे की रणनीति पर अमल कर रहे हैं। ऐसे में वे किसी जाति विशेष की एकमुश्त नाराजगी मोल लेने का खतरा नहीं उठाना चाहते हैं। चूंकि क्षत्रिय वोटरों का बड़ा हिस्सा लंबे वक्त तक सपा के साथ रहा है ऐसे में इस बिरादरी को सीधे तौर से नाराज करने से अखिलेश यादव बचना भी चाहते हैं। सपाई थिंक टैंक वाकिफ है कि राणा सांगा-औरंगजेब विवाद पर रामजीलाल सुमन के बयान से उठा तूफान उसकी उम्मीदों को नुकसान पहुंचा सकते हैं इसलिए सटीक और संतुलित बयानबाजी की रणनीति अपनाई जा रही है। रामजीलाल सुमन के खिलाफ लामबंद करणी सेना पर अखिलेश की प्रतिक्रिया गौर करने लायक है। वह कहते हैं कि जिस तरह से हिटलर ने वर्दीधारी ट्रूपर्स बना रखे थे वैसे ही करणी सेना के जरिए बीजेपी अपने हित साध रही है। इस बयान के जरिए वह जहां बीजेपी पर निशाना साध रहे हैं वहीं संदेश देना भी चाहते हैं कि पूरा राजपूत समाज नाराज नहीं है बल्कि बीजेपी से जुड़े कतिपय लोगों का आक्रोश आंदोलन की शक्ल में दिख रहा है। बहरहाल, इस हकीकत से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि मामले ने दलित-राजपूत रुप अख्तियार किया तो इसके दूरगामी असर सपा और बीजेपी दोनों पर पड़ेगा।