ब्यूरो: कभी एमवाई यानी मुस्लिम-यादव समीकरण के लिए चर्चित रही समाजवादी पार्टी ने जब से पिछड़ा-दलित-अल्पसंख्यक वाले पीडीए फार्मूले के तहत दलित वोटरों पर फोकस किया तब से पार्टी की तकदीर में तब्दीली हुई है। अखिलेश यादव द्वारा दलित वोटरों में पैठ बनाने की मुहिम का ही नतीजा रहा कि आम चुनाव में यूपी में सपा सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी। दलित बिरादरियों को जोड़कर वोट बेस के दायरे को बढ़ाने की सपा की कोशिश उपचुनाव में भी झलकी है। इस रणनीति के जरिए सपाई खेमा बेहतर नतीजों की उम्मीदें लगाए हुए हैं।
उपचुनाव में टिकट देते वक्त जाटव बिरादरी को खास तवज्जो दी है सपा सुप्रीमो ने
पश्चिमी यूपी की गाजियाबाद सदर सीट पर सपा मुखिया अखिलेश यादव ने अयोध्या वाले प्रयोग को दोहराया है। दरअसल, आम चुनाव के दौरान सामान्य सीट अयोध्या से सपा ने पासी बिरादरी से ताल्लुक रखने वाले अवधेश प्रसाद को चुनाव मैदान में उतारा था और उन्होंने जीत दर्ज की थी। तो अब उपचुनाव में इसी तर्ज पर सामान्य सीट गाजियाबाद से समाजवादी पार्टी ने अनुसूचित जाति के सिंह राज जाटव पर दांव लगाया है। इनका मुकाबला बीजेपी के संजीव शर्मा और बीएसपी के परमानंद गर्ग से हो रहा है। वहीं, अलीगढ़ की खैर सीट से सपा प्रत्याशी हैं चारू केन। जाटव बिरादरी से ताल्लुक रखने वाली चारू एमबीबीएस डॉक्टर हैं और उनकी शादी जाट परिवार में हुई है। वह अलीगढ़ के पूर्व जिला पंचायत अध्यक्ष चौधरी तेजवीर सिंह उर्फ गुड्डू की बहू हैं। साल 2022 के विधानसभा चुनाव में बीएसपी प्रत्याशी के तौर पर खैर सीट से लड़ी थीं। इन्हें 65302 वोट मिले थे पर बीजेपी के अनूप प्रधान से चुनाव हार गई थीं। बीएसपी के कोर वोटरों में मजबूत पकड़ रखने वाली चारू ने पिछले महीने ही कांग्रेस की सदस्यता ली थी। पर इस कांग्रेस को कोई भी सीट न मिलती देख वह सपा के पाले में शामिल हो गईं और उन्हें टिकट हासिल हो गया। सपा को उम्मीद है कि चारू को प्रत्याशी बनाने से उनकी पार्टी को दलित बिरादरी के साथ ही जाट वोटरों का भी समर्थन मिल सकेगा।
दलित वोटरों को संदेश देने के लिए सपा की मुहिम लगातार जारी है
साल 2022 के विधानसभा चुनाव से पहले से ही एक बेहद सधी रणनीति के तहत कदम बढ़ाते हुए सपा सुप्रीमो अखिलेश यादव ने दलित बिरादरियों के बीच अपनी पैठ मजबूत करने का अभियान छेड़ दिया था। अपने पीडीए फार्मूले के तहत डी यानी दलित वोटरों पर सपा ने लगातार फोकस किया। इनसे जुड़े मुद्दों को उठाया तो संगठन में भी हिस्सेदारी तय की। सपाई थिंक टैंक ने डा. राममनोहर लोहिया और चौधरी चरण सिंह के साथ ही बाबा साहेब अंबेडकर को भी अपनी पार्टी के विचारकों की फेहरिस्त में शामिल कर लिया। सार्वजनिक मंचों से अखिलेश यादव ने लोहियावादियों और अम्बेडकरवादियों को जोड़ने की अपील शुरू कर दी। लोहिया वाहिनी की तर्ज पर समाजवादी पार्टी में बाबा साहब भीमराव आंबेडकर वाहिनी बनाई गई। जिसे सूबे में दलितों को जोड़ने का मिशन सौंपा गया। इसका दलित बिरादरियों के बीच सकारात्मक संदेश गया।
बीएसपी संस्थापक कांशीराम को सपा के महापुरुषों में शामिल करके बड़ा दांव चला सपा मुखिया ने
एक सुविचारित रणनीति के चलते सपाई खेमे ने बीएसपी संस्थापक कांशीराम का नाम पार्टी के महापुरुषों की श्रृंखला में जोड़ लिया। पिछले वर्ष 3 अप्रैल को रायबरेली के ऊंचाहार में कांशीराम की प्रतिमा के अनावरण के अवसर पर सपा मुखिया अखिलेश ने मुलायम और कांशीराम के नब्बे के दशक के गठजोड़ को याद किया। जनता को याद दिलाया कि साल 1991 में मुलायम सिंह यादव के समर्थन के चलते ही कांशीराम पहली बार संसद पहुंचने में कामयाब हुए थे। सपा के प्रेरक महापुरुषों की फेहरिस्त में बीएसपी संस्थापक को जोड़ने की कड़ी में सपा मुख्यालय में कांशीराम परिनिर्वाण दिवस के मौके पर श्रद्धांजलि सभा का आयोजन शुरु हुआ। इन कवायदों के चलते दलितों के बीच समाजवादी पार्टी को लेकर जो आशंकाएं थी दूर होना शुरू होती गईं। दलितों को जोड़ने की मुहिम के तहत ही अखिलेश यादव ने बीएसपी के कई कद्दावर दलित नेताओं को अपने खेमे का हिस्सा बना लिया।
बीएसपी के साथ गठजोड़ भले न टिका हो पर ये दांव भी सपा के लिए फायदेमंद रहा
साल 2019 के लोकसभा चुनाव में धुर विरोधी रही बीएसपी के साथ गठबंधन करके सपा को सीटों का तो अधिक फायदा नहीं हुआ लेकिन इस गठजोड़ की वजह से दलित समुदाय में सपा को लेकर न सिर्फ कड़वाहट कम हुई बल्कि दलित वोटरों के एक हिस्से का जुड़ाव सपा से होने लगा। तो बीएसपी से इन वोटरों का छिटकना शुरू हो गया। इस वजह से साल 2019 में 19.43 वोट हासिल करने वाली बीएसपी का वोटशेयर लुढ़क कर 9.39 फीसदी जा टिका। पार्टी की सीट संख्या भी शून्य पर पहुंच गई। वहीं, साल 2017 के विधानसभा चुनाव में 21.82 फीसदी वोट शेयर के साथ 47 सीटें जीतने वाली सपा का वोट शेयर साल 2022 के विधानसभा चुनाव में बढ़कर 32.05 वोट हो गया उसकी सीटों का आंकड़ा 111 जा पहुंचा। तो साल 2019 के लोकसभा चुनाव में महज पांच सीटें पर सिमटी हुई सपा 2024 के आम चुनाव में 37 सीट हासिल कर सूबे की सबसे बड़ी पार्टी बन गई।
कभी बीएसपी के परंपरागत समर्थक रहे जाटव वोटरों के रुझान अपनी ओर करने की सपा की कोशिशें रंग लाईं
जातीय आंकड़ों पर गौर करें तो सूबे की 21 फीसदी दलित आबादी में सर्वाधिक 55 फीसदी तादाद जाटव बिरादरी की है। ये आंकड़ा कुल आबादी का 11 फीसदी हिस्सा है। बहुजन समाज पार्टी के अस्तित्व में आने के बाद से जाटव वोटरों का बड़ा हिस्सा कांशीराम-मायावती के समर्थन में लामबंद रहा। हालांकि शुरुआती जुड़ाव के बाद गैर-जाटव वोटर बीएसपी से छिटकने लगे, इनका बड़ा हिस्सा बीजेपी के पक्ष में आ गया। इसी का नतीजा था कि साल 2019 के आम चुनाव में यूपी की 17 सुरक्षित लोकसभा सीटों में से 15 पर बीजेपी को जीत मिली। जबकि बीएसपी दो सीटों पर जीती थी। पर साल 2024 के आम चुनाव में जो ट्रेंड नजर आया उसके मुताबिक जाटव व पासी बिरादरियों सहित दलित वोटरों के बड़े हिस्से का रुझान सपा-कांग्रेस गठबंधन के पक्ष में हुआ। नतीजतन, बीएसपी का खाता तक नहीं खुला जबकि सपा आठ सुरक्षित सीटों को जीतने में कामयाब हो गई। एक एक सीट कांग्रेस और आजाद समाज पार्टी को भी मिल गई।
राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि मुस्लिम-यादव फार्मूले पर अमल करने वाली सपा ने शुरुआती दौर में नान जाटव दलित बिरादरियों को लामबंद किया फिर जाटव वोटरों में भी पैठ बनाने में कामयाबी हासिल की। उपचुनाव की नौ सीटों में से दो पर जाटव प्रत्याशियों को उतार कर इस बिरादरी को बड़ा संदेश देने का दांव चला है समाजवादी पार्टी ने। पार्टी थिंक टैंक को उम्मीद है कि इस कवायद से उपचुनाव में भी सपाई साईकिल की रफ्तार तेजी हासिल करेगी।