Friday 22nd of November 2024

UP Lok Sabha Election 2024: यहां जानें बदायूं संसदीय सीट का समीकरण, आजादी की लड़ाई में निभाई थी अहम भूमिका

Reported by: PTC News उत्तर प्रदेश Desk  |  Edited by: Rahul Rana  |  April 22nd 2024 11:17 AM  |  Updated: April 22nd 2024 11:17 AM

UP Lok Sabha Election 2024: यहां जानें बदायूं संसदीय सीट का समीकरण, आजादी की लड़ाई में निभाई थी अहम भूमिका

ब्यूरो: Gyanendra Shukla, Editor, UP:  यूपी का ज्ञान में आज चर्चा करेंगे बदायूं संसदीय सीट की। रुहेलखंड इलाके के अहम जिलों में शुमार है बदायूं। गंगा नदी के किनारे बसे इस शहर का इतिहास अति प्राचीन है।  पूर्व में इसे वेदामऊ या वेदों की नगरी के नाम से भी जाना जाता था। यहां ज़री ज़रदोज़ी की पांच हजार से अधिक औद्योगिक इकाइयां हैं। मेंथा उत्पादन बहुतायत में होता है। वस्त्र व फर्नीचर उद्योग भी बड़ी तादाद में रोजगार मुहैया कराता है। पिछले महीने बदायूं की बाबा कॉलोनी में दो मासूम बच्चों की गला रेत कर हुई हत्या की वारदात ने सनसनी फैला दी थी, बाद में पुलिस ने मुख्य आरोपी साजिद को एनकाउंटर में ढेर कर दिया था

प्राचीन काल से मध्यकाल तक का बदायूं का सफर

पौराणिक मान्यता है कि यहां के कछला गंगा घाट पर ही भागीरथी ने गंगा को धरती पर लाने के लिए तप किया था। जार्ज स्मिथ के अनुसार बदायूं जिले का नाम अहीर राजकुमार बुद्ध के नाम पर रखा गया था। महमूद गजनवी और मुहम्मद गौरी के समय भी इस क्षेत्र का नाम बदायूं हुआ करता था। इल्तुतमिश के शासन के दौरान बदायूं 4 साल तक उसकी राजधानी रहा। उस दौर में यहां जामा मस्जिद का निर्माण कराया गया। अकबर के समय आइने-अकबरी में भी इसे बदायूं के नाम से संबोधित किया गया। अलाउद्दीन खिलजी ने अपना अंतिम समय बदायूं में ही गुजारा। अकबर के समय के इतिहासकार व लेखक अब्दुल कादिर बदायूंनी यहीं पर लंबे समय तक रहे। बाद में ईस्ट इंडिया कंपनी का यहां आधिपत्य हो गया।

आजादी की लड़ाई में अहम भूमिका निभाई बदायूं ने

1823 में अंग्रेजों ने बदायूं जिले का मुख्य केंद्र सहसवान को बनाया लेकिन 5 साल बाद 1828 में बदायूं को मुख्यालय में बदल दिया गया। सन् 1857 के स्वतंत्रता आंदोलन की ज्वाला यहां  भी धधकी थी। तब यहां की बिल्सी तहसील के गांव बेहटा गोसाई और परगना असदपुर में अंग्रेजों के खिलाफ आवाम ने विद्रोह कर दिया था। कई अंग्रेजों को मौत के घाट उतार दिया गया। हालांकि 1958 में इस आंदोलन को कुचल दिया गया। दर्जनों क्रांतिकारियों को फांसी दे दी गई तो हजारों को जेलों में ठूंस दिया गया। बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में हुए तमाम आंदोलनों में बदायूं की आवाम ने बढ़चढ़कर हिस्सा लिया। 1 मार्च 1921 को महात्मा गांधी बदायूं आए थे। असहयोग आंदोलन का यहां खासा असर हुआ। 1929 में महात्मा गांधी दोबारा बदायूं आए।

 प्रसिद्ध धार्मिक व पर्यटन स्थल

यहां ककोड़ देवी मंदिर, उसहैत का कालसेन मंदिर, रुदायन का दुर्गा मंदिर, नगला मंदिर, छोटे व बड़े सरकार की दरगाह अति प्रसिद्ध हैं। इखलास का रोजा, सम्राट अशोक बौद्ध स्थल, सहसवान स्थित सरसोता प्रमुख पर्यटन स्थल हैं। बदायूंनी का मकबरा यहां  का प्रसिद्ध स्मारक है। इमादुलमुल्क की दरगाह (पिसनहारी का गुम्बद) भी यहां की मशहूर इमारतों में शुमार है।

चुनावी इतिहास की नजर से बदायूं सीट

साल 1952 में इस सीट से कांग्रेस के बदन सिंह पहले सांसद चुने गए। 1957 में भी कांग्रेस को जीत मिली तब रघुवीर सहाय यहां से चुनाव जीते।  1962 और 1967 में  जनसंघ के ओंकार सिंह यहां से चुनाव जीते। 1971 में कांग्रेस के करन सिंह यादव सांसद बने। 1977 में इमरजेंसी के बाद हुए चुनाव में ओंकार सिंह ने जनता पार्टी के प्रत्याशी को तौर पर जीत दर्ज की। 1980 में कांग्रेस के मोहम्मद असरार अहमद यहां से कामयाब हुए। 1984 में कांग्रेस के टिकट से सलीम इकबाल शेरवानी को कामयाबी मिली। 1989 के संसदीय चुनाव में जनता दल के नेता शरद यादव सांसद चुने गए। 1991 में राम मंदिर आंदोलन के दौर में बीजेपी के टिकट से जीतकर स्वामी चिन्मयानंद यहां से सांसद बने।

चार बार लगातार चुनाव जीतकर सपा ने बनाया रिकॉर्ड

साल 1996 से लेकर 2014 तक के हुए छह चुनावों में इस सीट पर समाजवादी पार्टी को जीत हासिल हुई। 1996, 1998, 1999 और 2004 में लगातार चार बार सपा प्रत्याशी के तौर पर सलीम इकबाल शेरवानी चुनाव जीते, केन्द्र में मंत्री भी बने। 2009 में सैफई परिवार के धर्मेन्द्र यादव सपा प्रत्याशी के तौर पर चुनाव लड़े और उन्होने बीएसपी के टिकट से चुनाव लड़ रहे बाहुबली डीपी यादव को कांटे की टक्कर के बाद महज 32, 542 वोटों के मार्जिन से मात दे दी। तब सलीम इकबाल शेरवानी कांग्रेस के टिकट पर लड़े और तीसरे स्थान पर जा पहुंचे। 2014 की मोदी लहर में भी धर्मेन्द्र यादव ने इस सीट पर जीत के सिलसिले को बरकरार रखा। उन्होंने बीजेपी के वागीश पाठक को 1,66,347 वोटों से शिकस्त दी।

2019 के चुनाव में बीजेपी को जीत हासिल हुई

अपने विवादित बयानों की वजह से सुर्खियां बटोरने वाले स्वामी प्रसाद मौर्य की बेटी संघमित्रा मौर्य को बीजेपी ने साल 2019 के आम चुनाव में बदायूं से टिकट दिया। संघमित्रा को 511,352 वोट हासिल हुए जबकि सपा-बीएसपी गठबंधन से चुनाव लड़ रहे सपा के धर्मेंद्र यादव को 4,92,898 वोट हासिल हुए। कांटेदार मुकाबले के बाद संघमित्रा ने 18,454 वोटों के मार्जिन से चुनाव जीत लिया। कांग्रेस के सलीम इकबाल 51947 वोट पाकर तीसरे स्थान पर रहे।

जातीय व सामाजिक समीकरणों का हिसाब-किताब

तकरीबन 19 वोटरों वाली बदायूं सीट पर पचास फीसदी आबादी यादव व मुस्लिम वोटरों की है। यहां चार लाख यादव तो पौने चार लाख मुस्लिम हैं। ढाई लाख गैर यादव ओबीसी हैं, पौने दो लाख दलित हैं तो वैश्य और ब्राह्मण वोटरों की तादाद करीब यहां 2.5 लाख है। यादव बाहुल्य आबादी होने की वजह से ये सीट समाजवादी पार्टी के गढ़ के तौर पर गिनी जाती रही है। 

बीते  विधानसभा चुनाव में सपा का पलड़ा भारी रहा

बदायूं संसदीय सीट के तहत पांच विधानसभाएं शामिल हैं, संभल की गुन्नौर जबकि बदायूं जिले की बिसौली सुरक्षित, सहसवान , बिल्सी और बदायूं सदर। साल  2022 के चुनाव में तीन सीटों पर सपा काबिज हुई जबकि महज दो सीटें ही बीजेपी को मिल सकीं। कन्नौज से सपा के रामखिलाड़ी सिंह यादव, बिसौली से सपा के आशुतोष मौर्य, सहसवान से सपा के ब्रजेश यादव चुनाव जीते। जबकि बिलसी से बीजेपी के हरीश शाक्य और बदायूं से बीजेपी के महेश चन्द्र गुप्ता को कामयाबी मिली।

आम चुनाव के लिए तैनात हो चुकी हैं सियासी सेनाएं

2024 के मिशन को कामयाब बनाने के लिए सियासी दलों के प्रत्याशी मैदान में उतर चुके हैं। समाजवादी पार्टी ने पहले यहां से धर्मेन्द्र यादव को टिकट दिया गया। बाद में शिवपाल सिंह यादव के नाम का ऐलान हुआ। पर शिवपाल के इंकार के बाद यहां से उनके बेटे आदित्य यादव को टिकट दिया गया।बीजेपी ने दुर्विजय सिंह शाक्य को चुनाव मैदान में उतारा है। जबकि बीएसपी ने पूर्व विधायक मुस्लिम खां को टिकट दिया है। आदित्य यादव यूपीपीसीएफ के चेयरमैन रह चुके हैं। सैफई परिवार की विरासत संजोने के लिए चुनावी मैदान में हैं। बीजेपी के दुर्विजय सिंह शाक्य आरएसएस के बैकग्राउंड से हैं। पेशे से शिक्षक  हैं। पिछले साल से ब्रज क्षेत्र के क्षेत्रीय अध्यक्ष का जिम्मा संभाल रहे हैं। बीएसपी के मुस्लिम खां साल 2007 में उसहैत से विधायक बने। 2012 में टिकट न मिलने पर निर्दलीय चुनाव लड़े। बाद मे फिर बीएसपी में शामिल हो गए। नगर पालिका ककराला के चार बार चेयरमैन रहे हैं। फिलहाल, तीनों दलों के प्रत्याशी मिलकर यहां का मुकाबला त्रिकोणीय और दिलचस्प बनाए हुए हैं।

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