Reported by: (Gyanendra Shukla)
ब्यूरो: यूपी की विधानसभा में महज एक विधायक वाली बीएसपी उच्च सदन यानी विधान परिषद में अपनी नुमाइंदगी गंवा चुकी है। बीते लोकसभा चुनाव में देश भर में महज 2.06 फीसदी वोट हासिल करने वाली बीएसपी अपना खाता तक नहीं खोल सकी। तो अब मायावती की पार्टी को हरियाणा और जम्मू कश्मीर के विधानसभा चुनावों में भी मायूसी हासिल हुई है। ऐसे में बीएसपी के राष्ट्रीय पार्टी के दर्जे पर आंच आने की आशंका बढ़ गई है तो आगामी चुनावी चुनौतियों के लिए भी पार्टी की दावेदारी कमजोर हुई है।
हरियाणा व जम्मू कश्मीर में बीएसपी को किंगमेकर बनने की थी उम्मीद
हरियाणा के बीस फीसदी के करीब दलित वोटरों पर बीएसपी की निगाहें थीं। कभी जाट वोटबैंक पर मजबूत असर रखने वाले इंडियन नेशनल लोकदल के साथ समझौता करके बीएसपी ने दलित-जाट फार्मूले का दांव चला था। पार्टी रणनीतिकारों को उम्मीद थी कि जीटी बेल्ट और दक्षिणी हरियाणा में बेहतरीन प्रदर्शन करके बीएसपी किंगमेकर की भूमिका में आ जाएगी। पर इन किलों पर बाजी बीजेपी के हाथों लगी और इस क्षेत्र में सेंधमारी की बीएसपी के मंसूबे धराशायी हो गए। कमोबेश ऐसी ही उम्मीद बीएसपी ने जम्मू कश्मीर की उन डेढ़ दर्जन सीटों पर लगाई थीं जहां दलित वोटरों की तादाद बीस फीसदी से अधिक है, पर वहां भी पार्टी की ख्वाहिश जमींदोज हो गईं।
बीएसपी के चुनावी ग्राफ के गिरावट का सिलसिला हरियाणा व जम्मू कश्मीर में भी कायम रहा
हरियाणा में इंडियन नेशनल लोकदल के साथ गठबंधन के तहत 37 सीटें पर चुनाव लड़ी बीएसपी अपना खाता तक नहीं खोल सकी। पार्टी का वोट शेयर दस साल पहले हुए विधानसभा चुनाव में मिले 4.14 फीसदी से गिरकर 1.82 फीसदी पर जा टिका, उसके ज्यादातर प्रत्याशी अपनी जमानत गंवा बैठे। वहीं, जम्मू कश्मीर में भी पार्टी का कोई प्रत्याशी न जीत सका, घाटी में तो बीएसपी का वोट शेयर महज 0.96 फीसदी हो सका। यहां भी पार्टी प्रत्याशी जमानत न बचा सके। बस पार्टी इस बात पर संतोष कर सकती है कि कई सीटों पर उसे प्रतिद्वंदी समाजवादी पार्टी से ज्यादा वोट मिले। मसलन, नगरोटा में सपा को 144 जबकि बीएसपी को 791 वोट मिले। विजयपुर में बीएसपी 544 वोट पाई जबकि सपा 200 से आगे न बढ़ सकी। चेनानी सीट पर बीएसपी को 457 वोट मिले जबकि सपा 233 पर ही सिमट गई।
कभी जम्मू कश्मीर में हुआ करती थी बीएसपी की थी सशक्त उपस्थिति
1996 के विधानसभा चुनाव में बीएसपी ने जम्मू कश्मीर में 29 सीटों पर चुनाव लड़कर 6.43 फीसदी वोट पाकर चार सीटों पर जीत दर्ज की थी। तब सांबा से सोमनाथ, कठुआ से सागर चंद, आरएसपुरा से रामचंद्र भगत और भद्रवाह विधानसभा क्षेत्र से शेख अब्दुल रहमान ने चुनाव जीता था। 2002 के विधानसभा चुनाव में 4.50 फीसदी वोट पाने वाली बीएसपी को विजयपुर सीट हासिल हुई थी यहां से उसके प्रत्याशी मंजीत सिंह चुनाव जीते थे। साल 2014 के विधानसभा चुनाव में बीएसपी ने कठुआ सीट पर कड़ा मुकाबला किया, लेकिन दूसरे पायदान पर ही रह गई। तब पार्टी को 1.41 फीसदी (67,786) वोट हासिल हुए थे।
हरियाणा में भी एक दौर में बीएसपी ने अपना रंग जमाया था
साल 1991 में पहली बार बीएसपी प्रत्याशी सुरजीत सिंह नारायणगढ़ से विधायक चुने गए थे। साल 1998 में कांशीराम के दौर में बीएसपी और इंडियन नेशनल लोकदल यानी इनेलो का गठबंधन हुआ था। तब अंबाला लोकसभा सीट से बीएसपी के अमन नागरा चुनाव जीते थे। बीएसपी ने साल 2009 में 6.76 फीसदी वोट पाकर दो सीटें हासिल की थीं। साल 2014 के विधानसभा चुनाव में 4.37 फीसदी वोट शेयर पाकर पार्टी को एक सीट पर कामयाबी मिली थी। फिर इसके बाद इस सूबे में पार्टी एक सीट तक पाने को तरस गई। 2019 के हरियाणा विधानसभा चुनाव में बीएसपी ने बिना किसी के साथ गठबंधन किए 87 सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारे थे। 4.21 फीसदी वोट शेयर मिला, न तो कोई सीट मिली उलटे पार्टी के 82 प्रत्याशियों की जमानत भी जब्त हो गई। इसी साल हुए आम चुनाव में बीएसपी को हरियाणा में 1.28 फीसदी वोट मिले थे इस लिहाज से इस विधानसभा चुनाव में उसके वोटशेयर में मामूली सा इजाफा हुआ है।
गठजोड़ के बावजूद इनेलो के समर्थक वोटर बीएसपी को ट्रांसफर न हो सके
हरियाणा में बीएसपी भले खाता न खोल सकी हो पर उसकी सहयोगी इंडियन नेशनल लोकदल को दो सीटें मिलीं साथ ही उसका वोटशेयर लोकसभा चुनाव के 2.41 फीसदी से बढ़कर 4.14 फीसदी पर जा पहुंचा। जाहिर है कि इनेलो के समर्थक वोटों का जुड़ाव बीएसपी प्रत्याशियों संग नहीं हो सका। खुद मायावती ने इसका जिक्र करते हुए एक्स पर लिखा-"हरियाणा विधानसभा आम चुनाव बीएसपी व इनेलो ने गठबंधन करके लड़ा किन्तु आज आए परिणाम से स्पष्ट है कि जाट समाज के जातिवादी लोगों ने बीएसपी को वोट नहीं दिया. जिससे बीएसपी के उम्मीदवार कुछ सीटों पर थोड़े वोटों के अन्तर से हार गए, हालांकि बीएसपी का पूरा वोट ट्रांसफर हुआ."
हरियाणा में आजाद समाज पार्टी की सक्रियता भी मायावती को अखरी
चंद्रशेखर आजाद की आजाद समाज पार्टी ने हरियाणा में दुष्यंत चौटाला की जननायक जनता पार्टी के साथ चुनाव लड़ा था। बीएसपी सुप्रीमो मायावती चंद्रशेखर की सक्रियता से असहज रही हैं। इस बार भी उन्होंने अपनी नाराजगी का इजहार बुधवार को कांशीराम के परिनिर्वाण दिवस के मौके पर किया। कांग्रेस, बीजेपी और सपा पर निशाना साधते हुए मायावती ने कहा कि चुनाव के समय बीएसपी को नुकसान पहुंचाने के लिए स्वार्थी तत्वों के जरिए छोटी-छोटी पार्टी व संगठन बनाकर तथा उन्हें चुनाव भी लड़वाकर वोटों को बांटने का कार्य किया जाता है। इनमें एकाध को जिताकर बहुजन मूवमेंट को कमजोर किया जाता है। इससे सजग व सावधान रहने की जरूरत है।
चुनावी दौड़ में शिकस्त के साथ ही आकाश आनंद पर लगाया गया दांव भी रहा बेअसर
बड़ी उम्मीदों के साथ मायावती ने अपने भतीजे आकाश आनंद को हरियाणा के चुनाव प्रचार की कमान सौंपी थी। उन्हें भरोसा था कि बीएसपी के नेशनल कोऑर्डिनेटर आकाश आनंद री-लांचिंग के इस चरण में अपना प्रभाव कायम कर लेंगे। पार्टी के दूसरे नंबर के स्टार प्रचारक के तौर पर आकाश आनंद को ही रखा गया था। मायावती ने इंडियन नेशनल लोकदल के साथ चार संयुक्त सभाओं में हिस्सा लिया जबकि टिकट बंटवारे से लेकर चुनावी अभियान के सर्वेसर्वा आकाश आनंद ही रहे। पार्टी के प्रचार का रथ लेकर निकले, गांवों में जाकर चौपाल लगाईं। पर नतीजों से स्पष्ट है कि उनकी मेहनत रंग न ला सकी।
चुनावी शिकस्त के सिलसिलों ने पार्टी के भविष्य को लेकर उठा दिए हैं सवाल
यूं तो सियासी विश्लेषक मानते हैं कि बीएसपी जब भी किसी दल के साथ समझौता करती है तब उसके पक्ष में वोटों का ट्रांसफर होने में दिक्कत आती है। साथ ही पार्टी में फैसलों के केंद्रीकरण की व्यवस्था भी पदाधिकारियों की सक्रियता पर प्रतिकूल असर डालती है। पर तमाम दलीलों और तर्कों के बावजूद ये हकीकत है कि बीएसपी का चुनावी प्रदर्शन बुरी तरह से लड़खड़ा चुका है। यूपी में चार बार अपनी सरकार बनाकर धाक जमाने वाली मायावती की पार्टी का असर संसद से लेकर कई राज्यों तक फैला हुआ था। पर कांशीराम द्वारा स्थापित ये पार्टी अपनी बढ़त का दौर कायम न रख सकी। बीएसपी के आलोचक उसके इतिहास बन जाने की बात तक कहने लगे हैं।
बहरहाल, चुनाव दर चुनाव जिस तेजी से बीएसपी के ग्राफ में गिरावट आई है उससे पार्टी के भविष्य को लेकर आशंकाएं उपजती हैं तो वहीं, बीएसपी के राष्ट्रीय पार्टी के दर्जे पर भी तलवार लटकती नजर आने लगी है। आगामी चुनावी चुनौतियों में भी पार्टी का दावा कमजोर हुआ है।